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[ १.३३.
तत्वार्थसूत्र किया जाता है। जिस विधि से संग्रह किया जाता है उसी विधि से उनका विभाग किया जाता है। उदाहरणार्थ-मनुष्य कहने से हिन्दुस्तानी, जापानी, चीनी, अमेरिकन आदि सभी मनुष्यों का जिस क्रम से संग्रह किया जाय उसी क्रम से उनका विभाग करने रूप विचार व्यवहार नय कहलाता है। लोक में या शास्त्र में इस नय की इसी रूप से प्रवृत्ति होती है। इससे इसके भी अनेक भेद हो जाते हैं। एकीकरण की दृष्टि से जितने संग्रह नय प्राप्त होते हैं विभागीकरण की अपेक्षा उतने ही व्यवहार नय प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि पदार्थों के विधि पूर्वक विभाग करने रूप जितने विचार पाये जाते हैं वे सब व्यवहार नय की श्रेणि में आते हैं।
ऊपर जो तीन नय बतलाये हैं वे प्रत्येक पदार्थ की विविध अवस्थाओं की ओर नहीं देखते। उन्हें नहीं पता कि वर्तमान में उसका
- क्या रूप है । पर्याय भेद तो उनमें सर्वथा अविवक्षित उडान ही रहता है। किन्तु विचार पर्याय की ओर जाँय ही नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार वे विविध पदार्थों का उनकी विविध अवस्थाओं की विवक्षा किये बिना वर्गीकरण और विभाग करते हैं उसी प्रकार वे उन पदार्थों की विविध अवस्थाओं का भी विचार करते हैं। किन्तु विविध अवस्थाओं का सम्मेलन द्रव्य कोटि में आता है पर्याय कोटि में नहीं । वास्तव में द्रव्य की एक पर्याय ही पर्याय कोटि में आती है क्योंकि पर्याय एक क्षणवर्ती होती है। उसमें भी वर्तमान का नाम ही पर्याय है क्योंकि अतीत विनष्ट और अनागत अनुत्पन्न होने से उनमें पर्याय व्यवहार नहीं हो सकता। इसी से ऋजुसूत्र नय का विषय वर्तमान पर्याय मात्र बतलाया है। आशय यह है कि यह नय विद्यमान अवस्था रूप से ही वस्तु को स्वीकार करता है द्रव्य उसमें सर्वथा अविवक्षित रहता है अतः पर्याय सम्बन्धी जितने भी विचार प्राप्त होते हैं वे सब ऋजुसूत्र नय की श्रेणि में आते हैं।