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________________ १.३३.] नय के भेद जग में जड़ चेतन जितने पदार्थ हैं वे सब सद्रूष हैं इसी से उनमें सत् सत् ऐसा ज्ञान और सत् सत् ऐसी वचन प्रवृत्ति होती है, अतः . सद्र प इस सामान्य तत्व पर दृष्टि रख कर ऐसा संग्रहनय विचार करना कि सम्पूर्ण जगत सद्र प है संग्रहनय है। जब ऐसा विचार आता है तब जड़ चेतन के जितने भी अवान्तर भेद होते हैं उन्हें ध्यान में नहीं लिया जाता और उन सब को सद्र प से एक मान कर चलना पड़ता है। यह परम संग्रहनय है। संग्रह किये गये तरतमरूप सामान्य तत्त्व के अनुसार इसके अनेक उदाहरण हो सकते हैं। इसी से इसके पर संग्रह और अपर संग्रह ऐसे दो भेद किये गये हैं। पर संग्रह एक ही है। किन्तु अपर संग्रह के लोक में जितनी जातियाँ सम्भव हैं उतने भेद हो जाते हैं। यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि नैयायिक वैशेषिकों ने पर और अपर नाम का व्यापक और नित्य जैसा स्वतंत्र सामान्य माना है ऐसा सामान्य जैन दर्शन नहीं मानता । इसमें सत दो प्रकार का माना गया है स्वरूपसत और सादृश्य सत । जो प्रत्येक व्यक्ति के स्वरूपास्तित्व का सूचक है वह स्वरूपसत है और जो सदृश परिणाम नाना व्यक्तियों में पाया जाता है वह सादृश्यसत है। यहां संग्रहनय का प्रयोजक मुख्यतः यह सादृश्यसत ही है। यह जितना बड़ा या छोटा विवक्षित होता है संग्रह नय भी उतना ही बड़ा या छोटा हो जाता है। आशय यह है कि जो विचार सदृश परिरणाम के आश्रय से नाना वस्तुओं में एकत्व की कल्पना करा कर प्रवृत्त होते हैं वे सब संग्रह नय की श्रेणि में आ जाते हैं। इस प्रकार यद्यपि संग्रहलय के द्वारा यथायोग्य अशेष वस्तुओं का वर्गीकरण कर लिया जाता है। मनुष्य कहने से सभी मनुष्यों का संग्रह हो जाता है। तथापि जब उनका विशेष रूप व्यवहार से बोध कराना होता है या व्यवहार में उनका अलग अलग रूप से उपयोग करना होता है तब उनका विधि पूर्वक विभाग
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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