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तत्त्वार्थ सूत्र
[१.३३. लेता है। समस्त लौकिक व शास्त्रीय व्यवहार इसी आधार पर चलता हैं । यद्यपि इस व्यवहार की जड़ उपचार में निहित है तथापि इससे मूल प्रयोजन के ज्ञान करने में पूरी सहायता मिलती है इसलिये ऐसे उपचार को समीचीन नय का विषय माना गया है। यह समीचीन नय ही नैगम नय है जो ऐसे उपचार को विषय करता है। जैसा कि पहले लिख आये हैं यह उपचार नाना प्रकार से होता है। कभी शब्द के निमित्त से होता है। जैसे, 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा' यहां पर अश्वत्थामा नामक हाथी के मर जाने पर दूसरे को भ्रम में डालने के लिए अश्वत्थामा शब्द का अश्वत्थामा नामक पुरुष में उपचार किया गया है। कभी शील के निमित्त से होता है। जैसे, किसी मनुष्य का स्वभाव अति क्रोधी देखकर उसे सिंह कहना। कभी कर्म के निमित्त से होता है। जैसे, किसी को राक्षस का कर्म करते हुए देख कर राक्षस कहना। कभी कार्य के निमित्त से होता है। जैसे, अन्न का प्राण धारण रूप कार्य देखकर अन्न को प्राण कहना। कभी कारण के निमित्त से होता है। जैसे, सोने के हार को कारण की मुख्यता से सोना कहना। कभी आधार के निमित्त से होता है। जैसे, स्वभावतः किसी को ऊँचा स्थान बैठने के लिये मिल जाने से उसे वहाँ का राजा कहना। कभी आधेय के निमित्तसे होता है। जैसे किसी व्यक्ति के जोशीले भाषण देनेपर कहना कि आज तो व्यास पीठ खूब गरज रहा है। आदि । ___ इस व इसी प्रकार के दूसरे वचन व्यवहार की प्रवृत्ति में मुख्यतः संकल्प कार्य करता है। इसी से अन्यत्र इस नय को संकल्प मात्र का ग्रहण करनेवाला बतलाया है। ___ आगम में इस नय के अनेक भेद मिलते हैं। यथा द्रव्यार्थिक नैगम, पर्यायार्थिक नैगम, द्रव्यपर्यायार्थिक नैगम । सो वे सब भेद तभी घटित होते हैं जब इसका विषय उपचार मान लिया जाता है ।