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________________ १.३३] नय के भेद यों तो द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध में जितने विचार होते हैं उनका वर्गीकरण उपयुक्त चार नयों में ही हो जाता है। जिनका वी करण स्वतन्त्र नय द्वारा किया जाय ऐसे विचार ही सद नब शेष नहीं रहते। तथापि विचारों को प्रकट करने और इष्ट पदार्थ का ज्ञान कराने का शब्द प्रधान साधन है। इसलिये इसकी प्रमुखता से जितना भी विचार किया जाता है वह सब शब्द समभिरूढ और एवम्भूत नय की कोटि में आता है। अब तक शब्द प्रयोग की विविधता होने पर भी अथ में भेद नहीं स्वीकार किया गया था। किन्तु ये नय शब्दनिष्ट तारतम्य के अनुसार अर्थभेद को स्वीकार करके प्रवृत्त होते हैं। शब्द नय लिंग, संख्या, काल, कारक और उपसर्गादिक के भेद से अर्थ में भेद करता है। वह मानता है कि जब ये सब अलग अलग हैं तब फिर इनके द्वारा कहा जानेवाला अर्थ भी अलग अलग ही होना चाहिये। इसी से शब्द नय लिंग और कालादिक के भेद से अर्थ में भी भेद मान कर चलता है । उदाहरणार्थ-इसी ग्रन्थ में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र आया है। इस सूत्र में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' पद बहु वचनान्त और नपुंसक लिङ्ग है। तथा 'मोक्षमार्गः' पद एक वचनान्त और पुल्लिंग है। सो यह नय इस प्रकार के प्रयोगों में उन द्वारा कहे गये अर्थ को भी अलग अलग मानता है। वह मानता है कि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' पद द्वारा कहा गया अर्थ अन्य है और 'मोक्षमार्गः' पद द्वारा कहा गया अर्थ अन्य है। लिंग भेद और सङ्खथा भेद होने के कारण ये दोनों पद एक अर्थ के वाचक नहीं हो सकते ऐसी इसकी मान्यता है। यह लिंग और संख्या भेद से अर्थ भेद का उदाहरण है। ____ 'आज हम आप को यहां देख रहे हैं और कल चौक में देखा था' यह वाक्य यद्यपि एक व्यक्ति के विषय में कहा गया है तथापि शब्द
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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