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________________ ६१ १.३३.] नय के भेद प्राणप्रतिष्ठा का और भी कोई मुख्य प्रयोजन है क्या इसकी भी चर्चा कर लेना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है। बात यह है कि वस्तु का विवेचन तो सभी ने किया है। ऐसा एक भी दर्शन नहीं है जिसमें वस्तु की मूलस्पर्शी चर्चा नहीं की गई हो परन्तु उन्होंने अपने उतने ही विवेचन को अन्तिम मान लिया है जिससे एक दर्शन दूसरे दर्शन से सर्वथा जुदा पड़ गया है। यह बात केवल दर्शनों के सम्बन्ध में ही नहीं है उनके माननेवालों की भी यही गति है। इसके परिणामस्वरूप जगत् में अनेक मत मतान्तर खड़े हो गये हैं और वे एक दूसरे की अवगणना भी करने लगे हैं। प्रत्येक विचारक अपने विचारों को परिपूर्ण मानने लगा है। फलतः नयनिरूपण की । का शोधक दृष्टि का स्थान हठाग्रह ने ले लिया है। जैन प्राणप्रतिष्ठा का कारण ग्रन्थों में एक दृष्टान्त आया है। उसमें बतलाया है कि एक गांव में छह अन्धे रहते थे। उन्होंने कभी हाथी देखा नहीं था। एक बार उस गाँव में हाथी के आने पर वे उसे देखने के लिये गये। अन्धे होने के कारण वे उसे स्पर्श करके ही जान सकते थे। स्पर्श करने पर जिसके हाथ में सूंड आई उसने हाथी को मुसर सा मान लिया। जिसके हाथ में पैर आये उसने स्तम्भ सा मान लिया । जिसके हाथ में पेट आया उसने बिटा सा मान लिया। जिसके हाथ में कान आये उसने सूपा सा मान लिया। जिसके हाथ में पूंछ आई उसने बुहारी सा मान लिया और जिसके हाथ में दांत आये उसने लट्ठसा मान लिया । इन अन्धों की जो स्थिति हुई ठीक वही स्थिति विविध दार्शनिकों की हो रही है। जैनदर्शन ने इस सत्य को समझा और इसीलिये उसने विविध विचारों का समीक्षण और समन्वय करने के लिये सम्यग्ज्ञान की प्ररूपणा में नयवाद की प्राणप्रतिष्ठा इस दृष्टि से विचार करने पर जैनदर्शन से अन्य दर्शनों में क्या
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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