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तत्त्वार्थसूत्र
[ १.३३. - नहीं किया जाता है। उदाहरणार्थ-प्रमाण को शरीर और नयको उसका अवयव कह सकते हैं। यद्यपि शरीर के अवयव शरीर से जुदे नहीं होते हैं फिर भी उनको एकान्त से शरीर मान लेना उचित नहीं है। इस प्रकार शरीर और उसके अवयवों में जो भेद है ठीक वही भेद प्रमाणज्ञान और नयज्ञान में है। __ शंका-जब कि नयज्ञान विकलादेशी है तब फिर समीचीनता की दृष्टिासे उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है ?
समाधान-आगम में अनेकान्त दो प्रकार का बतलाया है-- सम्यगनेकान्त और गिथ्या अनेकान्त । जो एक ही वस्तु में युक्ति और आगम के अविरोध रूप से सप्रतिपक्षभूत अनेक धर्मों का प्रतिपादन करता है वह सम्यगनेकान्त है। तथा वस्तु स्वभाव का विचार न करके वस्तु को अनेक प्रकार की कल्पित करना मिथ्या अनेकान्त है। जिस प्रकार यह अनेकान्त दो प्रकार का बतलाया है उसी प्रकार एकान्त भी दो प्रकार का है-सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । जो सापेतभाव से एकदेशद्वारा वस्तु का निरूपण करता है वह सम्यक् एकान्त है। तथा जो वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य आदि रूप बतला कर उसमें सप्रतिपक्षभूत अन्य धर्मों का निषेध करता है वह मिथ्या एकान्त है। इनमें से सम्यक् अनेकान्त प्रमाणज्ञान का विषय माना गया है और मिथ्या अनेकान्त अप्रमाण ज्ञान का विषय माना गया है। इसी प्रकार सम्यक एकान्त नय का विषय माना गया है और मिथ्या एकान्त मिथ्यानय का विषय माना गया है। यतः नयज्ञान अनेकान्त को विषय नहीं करके भी उसका निषेध नहीं करता। प्रत्युत अपने विषय द्वारा उसकी पुष्टि ही करता है इसलिये नयज्ञान भी समीचीनता की दृष्टि से प्रमाण माना गया है।
इस प्रकार यद्यपि प्रमाणज्ञान के पांच भेदों से नयज्ञान का अलग से कथन क्यों किया गया है इसका कारण जान लेते हैं तो भी इसकी