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________________ १.३३. ] नय के भेद ५९ यद्यपि नय का अन्तर्भाव श्रुतज्ञान में होता है तो भी नयका अलग से निरूपण करने का एक प्रमुख कारण है, जो निम्न प्रकार है। -- यद्यपि श्रुतज्ञानका भेद हैं तो भो श्रुतप्रमाणसे नयमें अन्तर है । जो अंश अंशी का भेद किये बिना पदार्थ को समग्र रूप से विचार में लेता है और जो मतिज्ञानपूर्वक होता है वह श्रुतप्रमाण है । किन्तु ज्ञान ऐसा नहीं है । वह अंश अंशी का भेद करके अंश द्वारा का ज्ञान कराता है । इसी से प्रमाणज्ञान सकलादेशी और नयज्ञान विकलादेशी माना गया है । संकलादेश में सकल शब्द सेन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होता है । जो ज्ञान सकल अर्थात् अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध कराता है वह सकलादेशी होने से प्रमाण ज्ञान माना गया है । तथा विकलादेश में विकल शब्द से Mata का बोध होता है । जो ज्ञान विकल अर्थात् एक धर्म द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध कराता है वह विकलादेशी होने से ज्ञान माना गया है । पहले पांचों ज्ञानों का निरूपण प्रमाण की अपेक्षा से किया गया है वहां नयों का विवेचन करना सम्भव नहीं था । यही सबब है कि यहाँ स्वतन्त्र रूप से नयों का विवेचन किया गया है । I शंका -नयों का अन्तर्भाव प्रमाणकोटि में क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान - प्रमाण ज्ञान सकलादेशी माना गया है और नय विकलादेशी होते हैं इसलिये प्रमाण कोटि में नयों का अन्तर्भाव नहीं किया जाता है । शंका- तो क्या नय अप्रमाण होते हैं ? समाधान - समीचीनता की दृष्टि से तो दोनों ही ज्ञान प्रमाण होते हैं । किन्तु प्रमाण का अर्थ सकलादेशी करने पर यह अर्थ ज्ञान में घटित नहीं होता, इस लिये उसे प्रमाण कोटि में सम्मिलित
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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