________________
तत्त्वार्थसूत्र
[१.३३. __ जैसा कि हम पहले बतला आये हैं जगमें अनेक विचार हैं और उनकी नाना मार्गो से चर्चा भी की जाती है। एक विचार का समथक दूसरे विचार के समर्थक की बात नहीं सुनना चाहता । कोई किसी को स्वीकार नहीं करता । अाज का हिन्दू मुसलिम दंगा इसी का परिणाम है। देश में हिन्दुस्तान और पाकस्तान ये उपनिवेश भी इसी से बने हैं। एक दूसरे की सत्ता स्वीकार करने की बात न होकर भी मिलकर काम नहीं करना चाहते । ऐसा क्यों है ? क्या विचार
और प्राचार में जो भेद दिखाई देता है वह वास्तविक है ? दार्शनिक जगत में जड़-चेतन, इहलोक-परलोक, संसार-मुक्त आदि विषयों को लेकर जो पक्षापक्षी चली है उसपर क्या विजय नहीं प्राप्त की जा सकती है ? ये या ऐसे ही और अनेक प्रश्न हैं जिनका समाधान नयवाद से किया जा सकता है और सब को एक भूमिका पर लाकर बिठाया जा सकता है।
नयों में पदार्थ और आचार विचार के सम्बन्ध में जो विविध विचार प्रस्फुटित होते हैं उनका वर्गीकरण किया जाता है। मुख्यतया वे एक एक दृष्टिकोण का कथन करते हैं। ये विचार प्रायः एक दुसरे से भिन्न होते हैं। इसलिए इनमें विरोधसा प्रतीत होता है । इस विरोध को मिटाकर इनका समन्वय करना नयवाद का काम है। इसलिये इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं।
फिर भी सम्यग्ज्ञान के पाँच भेदों के साथ इसका कथन न करके अलग से कथन करने का क्या प्रयोजन है ? नय यह जब कि श्रुतज्ञान अलगसे नय निरूपण
_____ का भेद है तब उसका कथन श्रुतज्ञान के साथ ही की सार्थकता
" करना था। पर ऐसा क्यों नहीं किया गया यह
" एक प्रश्न है जिसके उत्तर पर इस प्रकरण के स्वतन्त्र रूपसे लिखे जाने की सार्थकता निर्भर है। इसलिए आगे इसी प्रश्न का समाधान किया जाता है