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________________ १.३३.] नयके भेद का अनुसरण करती हुई प्रतीत होती है। उसमें भी मल नय पाँच माने गये हैं और नैगम के दो तथा शब्द नय के तीन भेद किये गये हैं। तत्त्वार्थभाष्यमें जो नैगम के देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो भेद किये हैं सो वे कसायपाहुड में किये गये नैगम के संग्रहिक और असंग्रहिक इन दो भेदों के अनुरूप ही हैं। सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को नहीं मानते शेष छः नयों को मानते हैं। इनके सिवा सब दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों में स्पष्टतः सूत्रोक्त सात नयों का ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार विवक्षा भेदसे यद्यपि नयों की संख्या के विषय में अनेक परम्पराएँ मिलती है तथापि वे परस्पर एक दूसरे की पूरक ही है। पुराणों में कथा आई है कि भनवान आदिनाथ के साथ सैकड़ों राजा दीक्षित हो गये थे। दीक्षित होने के बाद कुछ काल तक तो वे भगवान का अनुसरण करते रहे। किन्तु अन्त नय निरूपण की ___ तक वे टिक न सके। जिन दीक्षा तो उन्होंने छोड़ पृष्ठभूमि दी पर अनेक कारणों से उनका घर लौट जाना सम्भव न था। उन्होंने वृक्षों के फल मूल आदि खाकर जीवन बिताना प्रारम्भ किया और अपने अपने विचारानुसार अनेक मतों को जन्म दिया। जैन शास्त्रों में जिन तीन सौ त्रेसठ मतों का उल्लेख मिलता है उनका प्रारम्भ यहीं से होता है। ये मत क्या है ? दृष्टिकोणों की विविधता के सिवा इन्हें और क्या कहा जा सकता है। जिन्हें उस समय संसार की क्षण भंगुरता की प्रतीति हुई उन्होंने क्षणिक मत काप्रचार किया। जिन्हें अन्न पानी का कष्ट रहते हुए भी जीवन की स्थिरता का भास हुआ उन्होंने नित्य मत का प्रचार किया। इस प्रकार ये विचार उद्भूत तो हुए विरोध की भूमिका पर, पर क्या ये विरोधी हैं ? नयवाद इसी का उत्तर देता है । नयवाद का अर्थ है विविध दृष्टिकोणों को स्वीकार करके उनका समन्वय करना ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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