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________________ तत्त्वार्थसूत्र [ १.३३. मिथ्या दृष्टि उन्मत्त पुरुष के समान कदाचित सत को सत मानता है, कदाचित् सत को असत् मानता है और कदाचित् असत को भी सत मानता है। यही सबब है कि सम्यग्दृष्टि का ज्ञानमात्र समीचीन और मिथ्यादृष्टि का ज्ञानमात्र असमीचीन माना जाता है। __ मिथ्यादृष्टि को सदा ही स्वरूप विपर्यास, कारण विपर्यास और भेदाभेद विपर्यास बना रहता है जिससे उसे मिथ्याज्ञान हुआ करता है। वह पदार्थों के स्वरूप, कारण और भेदाभेद का ठीक तरह से कभी भी निर्णय नहीं कर पाता। अपने मिथ्याज्ञान के दोष से अनेक विरुद्ध मान्यताओं को वह जन्म दिया करता है। विविध एकान्त दर्शन इसी मिथ्याज्ञान के परिणाम हैं । ज्ञान में अतिशय का होना और बात है और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होना और बात है। मिथ्यादृष्टि के भी ऐसा सातिशय ज्ञान देखा जाता है जिससे वह संसार को चकित कर देता है। पर वह ज्ञान मूल में सदोष होने के कारण मिथ्याज्ञान ही माना गया है। ऐसे मिथ्याज्ञान तीन हैं यह इन सूत्रों का भाव है ॥ ३१-३२॥ नयके भेद--- नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नया: ॥ ३३ ॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत ये सात नय हैं। ___ मूल नयों की संख्या के विषय में निम्नलिखित परम्पराएँ मिलती हैं षट्खंडागम में नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच भेदों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि कसायपाहुड में ये ही पाँच भेद निर्दिष्ट हैं तथापि वहाँ नैगम के संग्रहिक और असंग्रहिक ये दो भेद तथा तीन शब्द नय बतलाये हैं। श्वेताम्बर तत्त्वार्थ भाष्य और भाष्यमान्य सूत्रों की परम्परा कसायपाहुड की परम्परा
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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