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________________ १.३१.३२.] विपर्यय ज्ञान व वैसा होने में हेतु ५५ शंका---मिथ्यात्व दशा में ज्ञान को अज्ञान या मिथ्याज्ञान तो तब कहना चाहिये जब यह जीव घटादि पदार्थों को विपरीत रूप से ग्रहण करे परन्तु सदा ऐसा होता नहीं । यदि कारणों की निर्मलता, बाह्य प्रकाश और उपदेश आदि के अभाव में होता भी है तो वह मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों को ही होता है। वैसे साधारण दशा में तो जैसे सम्यग्दृष्टि मतिज्ञान द्वारा घटादि पदार्थों को जानता है वैसे मिथ्यादृष्टि भी मत्यज्ञान द्वारा घटादि पदार्थों को जानता है। जैसे सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञान द्वारा जाने हुए घटादि पदार्थो का विशेष निरूपण करता है. वैसे मिथ्यादृष्टि भी श्रुतज्ञान द्वारा उनका विशेष निरूपण करता है। इसी प्रकार जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान द्वारा रूपी पदार्थो को जानता है वैसे मिथ्यादृष्टि भी विभंगज्ञान द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है । इसलिये सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन दोनों के ज्ञानों में अन्तर मान कर एक को ज्ञान और दूसरे को अज्ञान कहना उचित नहीं है ? समाधान-यह सही है कि जानते तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टि दोनों ही हैं पर दोनों के जानने में अन्तर है और वह अन्तर वस्तु स्वरूप के विश्लेषण में है। यह थोड़े ही है कि उन्मत्त पुरुष सदा विपरीत ही जानता रहता है तथापि उसका जाननामात्र सुनिश्चित न होने के कारण जैसे मिथ्या माना जाता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि का ज्ञानमात्र वस्तु म्वरूप की यथार्थता को स्पर्श न करनेवाला होने के कारण मिथ्या ही है। उदाहरणार्थ-प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है तथापि मिथ्यादृष्टि को उसके अनेकान्तात्मक होने में या तो सन्देह बना रहता है या वह उसे अनेकान्तात्मक मानता ही नहीं, इसलिये यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से घट पटादि पदार्थों को मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों ही घटपटादिरूप से जान सकते है । तथापि दोनों के वस्तुस्वरूप के चिन्तवन करने के दृष्टिकोण में वड़ा भारी अन्तर है। सम्यग्दृष्टि जैसी वस्तु है वैसा ही विचार करता हैं और जानता भी वैसा ही है पर
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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