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________________ तत्त्वार्थसूत्र [१.३३. अन्तर है यह बात सहज ही समझ में आ जाती है। अन्य दर्शन जब जैनदर्शन से अन्य __कि एक-एक दृष्टिकोण का मुख्यतया प्रतिपादन करते ही है। वसी हालत में जैनदर्शन का मूल आधार विविध दृष्टिकोणों को अपेक्षा भेद से स्वीकार करके उनका समन्वय करते हुए वैषम्य को दूर करनामात्र है। जैनदर्शन ने सारी समस्याओं को इसी नयवाद के आधार से सुलझाने का प्रयत्न किया है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि यह नयदृष्टि से सर्वथा कल्पित दृष्टिकोणों को भी स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ ईश्वर जगत का कर्ता है इस दृष्टिकोण को वह किसी भी अपेक्षा से नहीं मानता है। वह ऐसा नहीं मानता कि किसी अपेक्षा से ईश्वर जगत का कर्ता है और किसी अपेक्षा से नहीं है। ये विचार कार्यकारण भाव की विडम्बना करनेबाले होने से इन्हें वह स्वीकार ही नहीं करता। वह तो वस्तुस्पर्शी जितने भी विकल्प हैं उन्हें ही अपेक्षाभेद से स्वीकार करता है। इस प्रकार नयनिरूपण की विशेषता का ख्यापन करने के बाद अब नय के सामान्य लक्षण का विचार करते हैं जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि नय वह मानसिक विकल्प है जो आचार विचार के विश्लेषण करने में प्रवृत्त होता है। ____ इस हिसाब से नय के सामान्य लक्षण की मीमांसा सन्च करने पर वह विवक्षित एक धर्मद्वारा वस्तु का सापेक्ष निरूपण करनेवाला विचार ठहरता है। यह लक्षण सभी मूल व उत्तर नयों में पाया जाता है इसलिये इसे नय का सामान्य लक्षण कहा गया है। शंका-प्रमाण सप्तभंगी में भी प्रत्येक भंग वस्तु का सापेक्ष निरूपण करता है इसलिये वह विकलादेश का ही विषय होना चाहिये, सकलादेश का नहीं ? समाधान-यह ठीक है कि प्रमाण सप्तभंगी में भी विवक्षाभेद से नय का सामान्य लक्षण
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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