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________________ वचनिका 15 विपुलमति ऐसें । अब याका लक्षण कहै हैं ॥ . वीर्यातराय मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मका तौ क्षयोपशम बहुरि अंगोपांगनामा नामकर्मका उदयका लाभके अवलंबनतें । आत्माकै परके मनके संबंधकी पाई है प्रवृत्ति जानें ऐसा जो ज्ञानोपयोग ताकू मनःपर्ययज्ञान कहिये । इहां कोई कहै, मनके संबंधकरि भया ताते यामैं मतिज्ञानका प्रसंग आवै है । तहां कहिये, याका उत्तर तो पूर्व सामान्यज्ञानके सिद्धि | सूत्रके व्याख्यानमैं कह्या था, इहां मनकी अपेक्षामात्र है उत्पत्तिकारण नाही। परके मनविपैं तिष्ठता पदार्थकू यहू जानै है टीका एतावन्मात्र अपेक्षा है। तहां ऋजुमतिज्ञान है सो कालतें जघन्य तौ आपके तथा अन्यके दोय तथा तीन भवका ग्रह- पान अ.१ णकू कहै । बहुरि उत्कृष्ट सात आठ भव कहै पहले भी अरु अगले भी। बहुरि क्षेत्रतें जघन्य तौ च्यारितें ले आठ कोश- ८५ ताईकी कहै । उत्कृष्ट च्यारि योजनतें ले आठ योजनताईकी कहै। बाह्यकी नाही कहै । बहुरि विपुलमतिज्ञान है सो कालतें जघन्य तौ सात आठ भव अगिले पिछलेका ग्रहण कहै । उत्कृष्ट असंख्यात भव अगिले पिछलेका ग्रहण कहै । बहुरि क्षेत्रतें जघन्य तौ च्यारित ले आठ योजनताईकी कहै । उत्कृष्ट मानुपोत्तरपर्वतकै माहिली कहै वारली न कहै ॥ ऐसें कहे जे मनःपर्ययज्ञानके दोय भेद तिनिवि विशेपकी प्राप्तिकै अर्थि सूत्र कहै है - ॥ विशुध्द्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ याका अर्थ- दोऊ मनःपर्ययज्ञानके विर्षे विशुद्धि अरु अप्रतिपात इनि दोय विशेषनिकार विशेप है । अपने आवरण १ जो कर्म ताके क्षयोपशम होते आत्माकै विशुद्धता उज्वलता होय ताकू विशुद्धि कहिये । संयमतें छूटनेकू प्रतिपात कहिये, जो प्रतिपात नाही ताकू अप्रतिपात कहिये । उपशांतमोहवाले जीवकै चारित्रमोहका उदय होतें संयमरूप शिखरतें प्रतिपात हो है उलटा आय पडै है । बहुरि क्षीणकपायवालेकै पडनेका कारण नाही । ताते उलटा न आवै है अप्रतिपात हो है। । इनि दोऊनिकरि ऋजुमति विपुलमति मनःपर्ययज्ञानमैं भेद है । तहां विशुद्धिकरि तौ ऋजुमतिः विपुलमतिज्ञान द्रव्यक्षेत्र | काल भावके विशेष जाननेकरि अतिशयकरि विशुद्ध है जो कार्माणद्रव्यकै अनंतवै भाग अंतका भाग सर्वावधिज्ञान जाने । है । ता· अनंतका भाग देतें अंतका भाग ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानका विषय है। ताकू अनंतभागरूप किये अनंतका भाग... विपुलमतिज्ञान जानै है । इहां अनंतकी गणतिका अनंतभेद है। तातै फेरि फेरि अनंतका भाग कह्या है। ऐसे द्रव्यकी अपेक्षा विशुद्धि कही । क्षेत्रकालकी पूर्वै कहीही थी। बहुरि भावकी अपेक्षा विशुद्धि अतिसूक्ष्म द्रव्यके जाननेहीतें जाननी । प्रकृष्ट क्षयोपशमके योगते विशुद्धि घणी होय है । बहुरि अप्रतिपात करिकै भी | ०००००००
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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