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________________ सर्वार्थ टीका ॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्प : शेषाणाम् ॥ २२ ॥ याका अर्थ- क्षयोपशम है निमित्त जावू ऐसा छह भेदरूप अवधि है सो शेष जे मनुष्य तिर्यच तिनिकै होय है। तहां अवधिज्ञानावरणकर्मके देशघातिस्पर्द्धकनिका उदय होतें बहुरि सर्वघातिस्पर्धकनिका उदय अभाव है लक्षण जाका वचऐसा क्षय, बहुरि तेही सर्वघातिस्पर्धक उदयकू न प्राप्त भये सत्ता अवस्थारूप उपशम है निमित्त जाकू सो क्षयोपशम निका निमित्त अवधि कहिये । सो शेष जे देवनारकीते अवशेष रहै मनुष्य तिर्यच तिनिकै होय है । तिनिमें भी जिनकै पान अवधियोग्य सामर्थ्य होय तिनहीकै होय है । जे असैनी तिर्यच तथा अपर्याप्तक मनुष्य तिर्यच इस सामर्थ्यते रहित 11 ८३ होय, तिनिकै न होय है। बहुरि संज्ञी पर्याप्तविर्षे भी सर्वहीकै न होय है केई सम्यग्दर्शनादि निमित्तकरि सहित होय ।। तथा जिनिकै कर्मका उपशम क्षय होय तिनहीकै होय है । इहां कोई पूछे, क्षयोपशमविनां तो अवधि होय नाही, सूत्रमैं क्षयोपशमशब्द ग्रहणका कहा प्रयोजन है ? तारूं कहिये इहां क्षयोपशमका ग्रहण नियमकै अर्थि है । इहां क्षयोपशमही निमित्त है भव नांही है ॥ सो यह अवधि छह भेदरूप है। अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित ऐसे छह भेद । हैं । तहां भवांतरकू गमन करता जो जीव ताकी लारही अन्यभवमैं साथि सूर्यके प्रकाशकी ज्यों चल्या जाय सो तौ | अनुगामी कहिये । बहुरि जो भवांतरमैं साथि न जाय जिस भवमै उपजै तिसहीमैं रहजाय, जैसैं पूठि पीछे प्रश्न करनेवाला पुरुषका वचन परके हृदयमैं प्रवेश न करै तैसें यहु अवधि जाननां सो अननुगामी कहिये । बहार जो सम्यग्दर्शनादिगुणरूप विशुद्धपरिणामनिकी वृद्धि होनेतें जिस परिणामकू लिये उपज्या तातै वधताही जाय असंख्यातलोकपरिमाणस्थानकनिताई वधै जैसे बांसनिकै परस्पर भिडनेते उपज्या जो अग्नि सो सूके पत्रादिक संचयरूप भया जो इंधनका समूह तापरि पड्या हूवा वधताही जाय तैसें यह अवधि वर्धमान कहिये । बहुरि जो सम्यग्दर्शनादिगुणकी हानिरूप जो संक्लेशपरिणाम तिनिकी वृद्धीके योगतै जिस परिमाणकू लीये उपज्या होय तातें घटताही जाय अंगुलकै असंख्यातवै भागमात्र स्थानकनिताई घटै जैसे परिमाणरूप है उपादानका संतान जाका ऐसा जो अग्नि ताकी शिखा घटतीही जाय | तैसें यह अवधि हीयमान जाननां । बहुरि जो सम्यग्दर्शनादिगुणका अवस्थानतें जिस परिणामकू लीये उपज्या तेताही | रहै पर्यायके अंतताई तथा केवलज्ञान उपजै तहांताई घटै वधै नाही, जैसे पुरुपके कोई तिला आदिका चिन्ह जैसा है ? तैसाका तैसाही रहै, तैसें यह अवधि अवस्थित जाननां । बहुरि जो सम्यग्दर्शनादि गुणके घटने वधनेके योगते जितने
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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