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________________ सर्वार्थ वच निका । ऐसा पदार्थही लोकवि नांही जो नामविनां होय तथा नामविना निश्चय जाका होय । ताका उत्तर-अकलंकदेव आचार्य । ऐसे कया है, जो नाम कहे पहली स्मृति संज्ञा चिंता अभिनिबोध भेद लिये मतिज्ञान प्रवर्ते हैं । अवशेप शब्दपूर्वक श्रुतज्ञान है। ऐसै कहनेतें जो अन्यवादी कहै है, ज्ञानके पूर्व जो निरंतर वचनरूपपणां होय तौ ज्ञानका प्रकाश होय । नांही । सो ऐसा कहनां भी निराकरण भया । वचनरूपताविनाही मतिज्ञान प्रकाशै है। सिद्धि A बहुरि शब्दाद्वैतवादीकी मानि कहकार निराकरण कीजिये है । बहुरि वह कहै, जो, वाणी च्यारि प्रकार है- वैखरी टी का मध्यमा पश्यंती सूक्ष्मा । तहां उर कंठ आदि स्थाननिङ भेदकार पवन नीसऱ्या ऐसा जो वक्ताका सासोछास है कारण जाकू ऐसा अक्षररूप प्रवर्तती ताकू तो वैखरी कहिये । वहरि वक्ताकी बुद्धि तो जाका उपादान है कारण है बहुरि सासोछासकूँ उल्लंघि अनुक्रमतें प्रवर्तती ताळू मध्यमा कहिये । बहुरि जामै विभाग नाही सर्व तरह संकोच्या है क्रम जानें ऐसी पश्यंती कहिये । बहुरि अंतर प्रकाशरूप स्वरूपज्योतीरूप नित्य ऐसी सूक्ष्मा कहिये । तिनिमैं वैखरी मध्यमा इनि दोऊविना ती इंद्रियज्ञान प्रवर्ते है । सो तौ स्वसंवेदन हमारे इष्ट है । हम भी मान हैं ॥ बहुरि पश्यंती तथा सूक्ष्मा विनाज्ञान नाहीं प्रवतॆ है । जातें निश्चयात्मक व्यापारस्वरूप जो ज्ञान सो जो पश्यंती अभेदरूप वाणी ताविना कैसे प्रवते ? तथा सर्वव्यापक नित्य एकरूप शाश्वती बीजरूप सर्ववाणीका कारण सर्वज्ञानवि प्रकाशरूप जो सूक्ष्मा वाणी ताविनां कैसे प्रवते ? ऐसै शब्दाद्वैतवादी कहै हैं । ताकू कहिये - जो, शब्दब्रह्म तौ तू | निरंश मान है, तावि4 च्यारि अवस्था कैसै होय ? जो होय तौ अंशसहित हूवा अनित्य ठहरै। अद्वैतपणां कैसै ठहरै ? जो कहै अविद्या" च्यारि अवस्था दीखै है तौ अविद्या काणकै है ? शब्दब्रह्म तौ निरंश है ताकै अविद्या कैसै वणै ? ३ तथा निरंश शब्दकी सिद्धि कैसै प्रमाणते करिये ? इंद्रियनिकरि तौ जाका ग्रहण नांही तथा जाका कछु एकताका लिंग नांही अर स्वसंवेदनमें आवै नांही, अर आगमतें भेदकी भी सिद्धि है अभेदकी सिद्धि नांही, बहुरि केवल आगमहीतें अन्यप्रमाणविनां तत्त्वकी सिद्धि भी प्रमाणभूत नाही, बहुरि शब्दब्रह्मतें जुदा ही आगम भी कछु है नाही, बहुरि ताके भेद अविद्यारूप बतावै तौ अविद्यातें ताकी सिद्धि कैसै होय । इत्यादि युक्तिते निरंशशब्दब्रह्मकी सिद्धि होती नाही । तथा ताकी च्यारि वाणीरूप अवस्था होनाही पण नाही । बहुरि हमारै स्याद्वादिनिकै सर्वप्रकार सिद्धि हो है ॥ ग वाणी द्रव्यभाव भेदतें दोय प्रकार है। तहां द्रव्यवचन दोय प्रकार; एक द्रव्यरूप एक पर्यायरूप । तहां श्रोत्रंद्रियकै ग्रहणमैं आवै ऐसा वचन तौ पर्यायरूप है। ताळू वैखरी ऐसा नाम किया ॥ बहुरि भापावर्गणारूप परिणये जे पुद्गलस्कंध तिनिळू द्रव्यवचन कहिये ताकू मध्यमा ऐसा नाम किया । बहुरि भाववचन दोय प्रकार है। ताके दोय भेद । -0D
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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