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सवार्थ
वच
त्र
पान ७४
॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ याका अर्थ- व्यंजन कहिये अव्यक्त जो शब्दादिक ताकै अवग्रहही होय है । ईहादिक न होय हैं ऐसा नियम
है ॥ तहां व्यंजन ऐसा शब्दादिका समूह अव्यक्त होय ताका अवग्रह होय । इहां कोई पूछे है यह सूत्र काहेके आर्य THER कह्या ? ताका उत्तर, जो, नियमकै अर्थि है । व्यंजनका अवग्रहही होय है। ईहादिक नाही होय है। ऐसा नियमकै आर्थि निका
है । फेरि कोई कहै; जो, ऐसे है तो नियमका वाचक एवकारशब्द इहां चाहिये । ताकू कहिये, जो, एवकार नाही | चाहिये । जातें जाका विधान पहली सूत्रमैं सिद्ध हुवा होय ताकू फेरि कहनां सो यहु कहनाही नियमका वाचक है । अवग्रहका विधान पहली सूत्रमैं सिद्ध हुवा । इस सूत्रमें फेरि अवग्रहका नाम कह्या, तातेही नियम सिद्ध भया । एवकार ।। काहेकू कहिये ? बहुरि इहां कोई प्रश्न करै है- अवग्रहका ग्रहण अर्थमैं तथा व्यंजनमैं तुल्य हैं । इनिमें विशेप कहा है ? ताका उत्तर अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह इनि दोऊनिमें व्यक्त अन्यक्तका विशेप है । सोही कहिये है। जैसे नवा मांटिका डीवावि जलका कणां क्षेपिये तहां दोय तीन आदि कणाकार सींच्या जेते ओला न होय तेते तो अव्यक्त है । बहुरि
सोही डीवा फेरि फेरि सींच्या हुवा मंद मंद ओला हाय तव व्यक्त है । तैसेंही श्रोत्रादि इंद्रियनिका अवग्रहवि ग्रहण। योग्य जे शब्दादि परिणया पुद्गलस्कंध ते दोय तीन आदि समयनिवि ग्रह्या हुवा जेते व्यक्त ग्रहण न व्यंजनावग्रह हो है । बहुरि फेरि फेरि तिनिका ग्रहण होय तव व्यक्त होय, तब अर्थावग्रह होय है । ऐसे व्यक्तग्रहणते पहले तो व्यंजनावग्रह कहिये । बहुरि व्यक्त ग्रहणकू अर्थावग्रह कहिये । यात अव्यक्तग्रहणरूप जो व्यंजनावग्रह ताते । ईहादिक न होय है ऐसें जाननां ॥
आगें, सर्वही इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रहका प्रसंग होते जिनि इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रह न संभवै, तिनिका निषेधकै अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ याका अर्थ- नेत्र इंद्रिय अरु मन इनि दोऊनिकरि व्यंजनावग्रह न होय है । जाते ए दोऊ अप्राप्यकारी कहिये पदार्थ" भिडिकार स्पर्शनकरि नांही जानै हैं दूरिहीतें जान हैं । जाते अप्राप्य कहिये विना स्पा अविदिकं कहिये सन्मुख आया निकट प्राप्त हूवा वाह्य प्रकाशादिककरि प्रगट कीया ऐसा पदार्थ नेत्र जाणे है । बहुरि मन है सो विना