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सर्वार्थ
सिद्धि
टीका
म. १०
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हीनाधिक या कछू होय । पंडित लोग सुधारो सोय || ख्यातिलाभपूजाके हेतु । रची नाहि इम शुभफल हेतु ॥ ३३ ॥ बांचौ पढौ पढाव सुनूं । तत्वारथकूं जानू गुनू ॥ करौ प्रसिद्धि सबै धरि चाव । सतपुरुषनिको यह स्वभाव ॥ ३४ ॥ हीनाधिक लखिहाँसियो नाहिं । अल्पबुद्धि में क्षमा कराहिं | यह मेरी प्रार्थना संभारि । अपनी उत्तमताको धारि ॥ ३५ ॥ २
॥ सवैया ॥
शब्दको उच्चार सोहै पुद्गलविकार और अक्षरप्रकार इच्छा जीवकी मिलै ज । श्याही पत्र लेखनी हू पुद्गल दरवि जानूं क्रिया जीवके प्रदेश इच्छा हलै तबै ॥ ग्रंथ रचनेकौ राग मोहको विकार शुभ ए तौ सवै पुद्गल हैं जीवको कहा फ । तातें करने को अभिमान तजो पंडित हो चेतनास्वरूप आप लखौ यो भलै अर्कै ॥ ३६ ॥
दोहा - संवत्सर विक्रम तणूं । शिखि रस गज शशि अंक ॥ चैतशुक्ल तिथि पंचमी | पूरण पाठ निशंक ॥ ३७ ॥
॥ छप्पय ॥
मंगलमय अरहंत सिद्ध मंगल विनिकाई । आचारज उवझाय साधु मंगल सुखदाई ॥ वाणी मंगलरूप स्यातपद मुद्रित सांची । धर्मशुद्ध निजरूप क्षमादिक हैं गुणवाची ॥
CESSF
वच
निका
पान
४१३