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नाहीं तैसे ते मुनि संयमी भी निग्रंथ नाहीं ठहरेंगे। जाते बाह्य आभ्यंतर ग्रंथ जिनके नाहीं ऐसे निग्रंथ तो ग्यारमां
वारमा गुणस्थानवर्ती हैं, नीचिले तो सग्रंथही ठहरेंगे । आचार्य कहै हैं, जो, यह ऐसा नाही है। तातै गुणके भेदतै २ परस्पर गुणका विशेप है तो नैगमआदि नयके व्यापारतें सर्वही संयमी मुनि निग्रंथ हैं ऐसा सूत्र कहै हैंसर्वार्थ
॥ पुलाकबकुशकुशीलनिर्गन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः॥ ४६॥ सिदि टीका याका अर्थ- पुलाक बकुश कुशील निग्रंथ स्नातक ए पांचप्रकार मुनि हैं, ते सर्वही निग्रंथ है। तहां उत्तरगुणकी
भावनाकरि रहित है मन जिनका बहुरि व्रतनिवि भी कोई क्षेत्रवि कोई कालवि परिपूर्णताकू नाही पावते संते पुलाक ऐसा नाम पावै हैं । पुलाक ऐसा नाम परालसहित शालीका है, ताकी उपमा इनकू देकरि संज्ञा कही है । सो मूलगुणनिवि कोई क्षेत्र कालके वशते विराधना होय है । तातें मूलगुणमें अन्य मिलाय भया, केवल न भये, तातें यह उपमा
दे संज्ञा कही है । वहुरि निग्रंथपणा जो सर्वथा बाह्य आभ्यंतर परिग्रह का अभाव तिसका तो जिनकै उद्यम है, बहुरि २ व्रत जिनके अखंडित है, मूलगुण खंडित नाहीं करै हैं, बहुरि शरीर उपकरण इनकी जो विभूपा कहिये सुन्दरता ताका
अनुवर्ती है कछू सुन्दरताका अनुराग है, जाते संघके नामक आचार्य होय हैं तिनकें प्रभावनाआदिका अनुराग होय है, तिनके निमित्ततें शरीर तथा कमंडलू पिच्छिका पुस्तक तथा ताके बंधन तिनकी सुंदरताकी अभिलाप उपजै है, चैत्यालयके उपकरण आदिकी सुंदरताका अनुराग होय तथा शरीरकी सुंदरताका अनुराग संघनायककै कदाचित् उपजै ऐसे शरीर उपकरणानुवती कहिये ॥
वहरि नाहीं मिट्या जो परिवारका अनुमोद कहिये हर्ष सोही भया छेद यात शवल कहिये चित्रवर्ण ताकार युक्त है। इस विशेपणते ऐसा जानना, जो, पहलै गृहस्थ थे तब परिवारसूं अनुराग था, सोही अनुराग अब संघते भया । इनके एकही परिवार है, सो परमनिग्रंथअपेक्षा याकू चित्रवर्ण आचरण कहिये । वीतरागता सरागताके मिलनेते चित्रलाचरण कह्या याहीते बकुश ऐसा नाम है । बकुशशब्द शवलका पर्यायशब्द है, दूसरा नाम है । इनका वार्तिकमें ऐसाही विशेपण किया हैं । ऋद्धिका अर यश अर शरीरका संस्कार अर विभूतिकेविर्षे तत्परता है । तहां भी यहही आशय | जानना, जो, ए दिगम्बर निग्रंथमुनि हैं तिनकै कछु अशुभ लौकिकसंबंधी तौ व्यवहार है नाही धर्मानुराग है । सो मनकी प्रभावना संघसूं अनुराग है, ताके आर्थि ऋद्धिका अनुराग है, हमारे ऋद्धि पुरै तो मार्गका बढी प्रभावना होय ||