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________________ वचनिका पान वि ૨૮૮ करणके परिणाम तेई भई पैडी ताकार ऊंचा चढता ऐसा जीव ताकै जो अतिशयकार बहुत निर्जरा होय है, सो इस | स्थानकतें आगें दशस्थाननिविर्षे असंख्यातका गुणाकार है, सो ऐसा जीव जब प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति सोही भया निमित्त ताके निकट होते सम्यग्दृष्टि होता संता असंख्यगुणनिर्जरावान् होय है। बहुरि सोही जीव चारित्रमोहका सर्वार्थ- भेद जो अप्रत्याख्यानावरणकपाय ताके क्षयोपशमपरिणामकी प्राप्तिका कालवि श्रावक होता संता असख्यातगुणनिर्ज रावान होय है । बहुरि सोही जीव चारित्रमोहका भेद जो प्रत्याख्यानावरणकपाय ताका क्षयोपशमकी प्राप्तिका कालवि विशुद्धपरिणामके योगते विरत नाम पावै, तब तिस श्रावकर्ते असंख्यातगुणनिर्जरावान मुनि होय है । बहुरि सोही जीव अनंतानुबंधीकषायकी चौकडीकू परिणामकी विशुद्धताके चलते अप्रत्याख्यानावरण आदि कपायरूप सक्रमण प्रधान| कार परिणमता संता अनंतानुबंधीका वियोजक नाम कहावता संता तिस विरतसंयमी मुनितें असंख्यातगुणनिर्जरावान मुनि होय है । बहुरि सोही जीव दर्शनमोहकी तीनि प्रकृति सोही भया तृणका समूह ताकू दग्ध करता संता परिणामकी शुद्धिका अतिशयके योगरौं दर्शनमोहक्षपक नाम पावै तव तिस विरततें 8 भी असंख्यातगुणनिर्जरावान् होय है। वहरि ऐसें सो क्षायिकसम्यग्दृष्टि होयकार श्रेणीकू चढनेकू सन्मुख होय तब चारित्रमोहके उपशमावनेप्रति व्यापाररूप होता संता परिणामकी विशुद्धताके योगते उपशमक ऐसा नाम पावता संता तिस क्षपकते असंख्यातगुणनिर्जरावान होय है । बहुरि सोही जीव समस्तचारित्रमोहका उपशम करनेका निमित्त निकट होते पाया है उपशातकपाय नाम जानें ऐसा होयकार तिस उपशमकते असंख्यातगुणनिर्जरावान् होय है । बहुरि सोही जीव समस्तचारित्रमोहकी उपशम करनेका निमित्त• निकट होते पाया है उपशांतकपाय नाम जानें ऐसा होयकार तिस उपशमकते असंख्यातगुणनिर्जरावान होय है । बहुरि सोही जीव समस्तचारित्रमोहकी क्षपणाप्रति सन्मुख हूवा संता परिणामकी विशुद्धताकरि वधता संता क्षपकनामकू पावता संता तिस उपशांतकपायतें असंख्यातगुणनिर्जरावान होय है । बहुरि सोही जीव चरित्रमोहके सम्पूर्ण क्षपणाके कारणपरिणामके सन्मुख हूवा संता क्षीणकपाय नाम पावता संता तिस क्षपकते असंख्यातगुणनिर्जरावान होय है । बहार सोही जीव द्वितीयशुक्लध्यानरूप अग्निकार दग्ध किये हैं घातिकर्मके समूह जानै ऐसा हूवा संता जिन नाम पावै, तब तिस क्षीणमोहत असंख्यातगुणनिर्जरावान होय है ॥ ___इहां विशेष जो, एकादशस्थान एकजीवकी अपेक्षा कहे तैसेंही नानाजीवकी अपेक्षा जाननो । याका विशेष कथन गोमटसार लब्धिसार क्षपणासारतें जानना ॥ आगें पूछे हैं, जो, सम्यग्दर्शन होतें भी स्थानकस्थानकप्रति असंख्यातगुणी निर्जरा कही, याते परस्पर समानपणा तौ नाहीं भया । सो इहां विरतआदिके गुणका भेद है। यातें जैसे श्रावक निग्रंथ नाहीं
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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