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________________ वच पान ३८४ योग कायवचनमनकी क्रियाकू कहिये है । बहुरि संक्रांति कहिये परिवर्तन पलटना । तहां द्रव्यकू छोडि पर्यायमें आवै, पर्यायकू छोडि द्रव्यमें आवै यह तौ अर्थसंक्रांति है। बहुरि एक श्रुतके वचनकू ग्रहणकार फेरि ताकू छोडि दूसरा श्रुतका वचनकू आलंबन करै फेरि ताकू भी छोडि अन्यवचनकं आलंदै - यह : व्यंजनसंक्रांति है । वहुरि काययोगके सर्वार्थ आलंबनकू छोडि वचनयोग तथा मनोयोगकू आलंबन कर, अन्ययोगकू छोडि फेरि फेरि काययोगकू आलंवै यह योगसंक्रांति निका ।। है । ऐसा परिवर्तन करै सो वीचार है ॥ . म. ९/01 इहां प्रश्न, जो, ऐसैं उलटे तव ध्यान कैसे कहिये १ ध्यान तो एकाग्र कह्या है । ताका समाधान, जो, एककं आलंबि करि क्यों एक ठहरि पीछे दूजेकू आलंबन करै तहां ठहरै । ऐसें ध्यान तौ ठहरनेहीकू कहिये । परंतु इहां पहले ठहऱ्या फेरि ठहरना ऐसें ध्यानका संतान है, सो ध्यानही है, यात दोष नाहीं । सो यह सामान्यविशेपकरि कह्या जो च्यारिप्रकार धर्मध्यान अर च्यारिप्रकार शुक्लध्यान सो पहले कहे जे गुप्ति आदि तिनस्वरूप जो अनेकप्रकार ध्यानके उपाय तिनकार किया है उद्यम जानें ऐसा जो मुनि सो संसारके नाशके अर्थि ध्यान करनेकू योग्य हो है । तहां द्रव्यपरमाणु अथवा भावपरमाणुकू ध्यावता लिया है श्रुतज्ञानका वचनस्वरूप वितर्ककी सामर्थ्य जानें ऐसें अर्थ अरु व्यंजन तथा काय अर वचनकू पृथक्त्व कहिये भिन्नपणाकार पलटता जो मन सो कैसा है मन ? जैसे कोई पुरुप कार्य करनेकू उत्साह करै सो जेता अपना बल होय तेतें कियाही करै बैठि न रहै, तैसें मनका बल होय तैसें ध्यानकी पलटनी होवी करै, बैठि न रहै । ऐसें मनकरि ध्यावता संता मोहकी प्रकृतिनिळू उपशम करता संता तथा क्षय करता संता पृथक्त्ववितर्कविचार ध्यानका धारी होय है ॥ इहां दृष्टांत ऐसा, जैसें, कोई वृक्षकू काटने लगा ताकै शस्त्र कुहाडी तिखी न होय तब थोडा थोडा अनुक्रमते काटे, । तैसे इस ध्यानकेविर्षे मनकी पलटनि है सोहू शक्तिका विशेष है । तातें अनुक्रमते मोहकी प्रकृतिका क्षय तथा उपशम || कर है । बहुरि सोही ध्यानी जब समस्तमोहनीयकर्मळू दग्ध करने• उत्साहरूप होय तब अनंतगुणी विशुद्धताका विशेपकू आश्रवकार बहुत जे ज्ञानावरणकर्मकी सहाय करनेवाली कर्मप्रकृति तिनकी बंधकी स्थितिकू घटावता तथा क्षय करता संता अपना इरुतज्ञानका उपयोगरूप हूवा संता नाहीं रचा है अर्थव्यंजनयोगका पलटना जानें ऐसे निश्चल मनस्वरूप होता संता क्षीण भये हैं कपाय जाके ऐसा वैडूर्यमणिकी ज्यौं मोहका लेपते रहित भया ध्यानकरि फेरि तिसतै निवर्तन न होय पलटै नाहीं, ऐसे एकत्ववितर्कअवीचार दूसरा होय है । ऐसेंही सो ध्यानी एकत्ववितर्क शुक्लध्यानरूप अग्निकार दग्ध किये है घातिकर्मरूप ईंधन जानें अर देदीप्यमान भया है केवलरूप किरणनिका मंडल जाकै ऐसा बादलेके पिंजरमें
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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