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इत्यादि जानना । इहां च्यारिप्रकारके मुनिकूं संघ कथा, तहां ऋषि यति अनगार मुनि ए च्यारि जानने । तहां ऋद्धिधारीकूं तो ऋषि कहिये, इन्द्रियङ्कं वश करै सो यति कहिये, अवधिमनः पर्ययज्ञानीकूं मुनि कहिये, सामान्य घरके त्यागी साधु सो अनगार कहिये । अथवा यति आर्यिका श्रावक श्राविका ऐसें भी च्यारिप्रकार संघ है । बहुरि मनोज्ञ कथा, सो जामें पंडितपणाकार कला वक्तापणा आदि गुण होय, सो लोकविषै मान्य होय सो मनोज्ञ है । तथा ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि होय, जामैं मार्गकूं ऊंचो दिखावनेके गुण होय, ताकूं भी मनोज्ञ कहिये है ॥ आगें स्वाध्यायके भेद अ. ९ जाननेकूं सूत्र कहै हैं
टिका
सर्वार्थसिद्धि
॥ वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५ ॥
याका अर्थ — वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय धर्मोपदेश ए पांच स्वाध्यायतपके भेद हैं । तहां निर्दोष ग्रंथ अर्थ उभय उनका जो भव्यजीवनिकूं देना शिखावना सो तौ वाचना है । बहुरि संशयके दूर करने कूं निर्वाध निश्चयके समर्थनिकूं दृढ करनेकूं परकूं ग्रंथका अर्थ दोऊका प्रश्न करना, सो पृच्छना है । जो आपकी उच्चताकार प्रार्थि परके ठगनेके आयें नीचा पाडनेके अर्थि परकी हास्य करनेकूं इत्यादि खोटे आशयसूं पूछै सो पृच्छना तप नाहीं हैं । बहुरि जिस पदार्थका स्वरूप जान्या, ताका मनकेविषै बारबार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है । बहुरि पाठकूं शुद्ध घोखना, सो आम्नय है । बहुरि धर्मकथा आदिका अंगीकार, सो धर्मोपदेश है । ऐसें पांच प्रकारका स्वाध्याय है । याका फल प्रज्ञाका तो अतिशय होय, प्रशस्त आशय होय, परमसंवेग होय, तपकी वृद्धि होय, अतीचारका शोधन होय इत्यादिक या प्रयोजन हैं । तथा संशयका नाश होय, मार्गकी दृढता होय, परवादीकी आशंकाका अभाव होय, ए फल हैं ॥ आगे व्युत्सर्गतपके भेदके निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं—
॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥
याका अर्थ – बाह्य अभ्यंतर ऐसें दोयप्रकारका परिग्रहका त्याग ए व्युत्सर्गके दोय भेद हैं । तहां व्युत्सर्ग नाम त्यागका है, सो दोयप्रकार है, बाह्य उपाधिका त्याग, अभ्यंतर उपाधिका त्याग । तहां अनुपात्तवस्तु जो आप न्यारा धनधान्यादिक, सो तौ बाह्यपरिग्रह है । बहुरि कर्मके निमित्ततैं भये आत्माके भव जे क्रोधआदिक, ते अभ्यंतर परिग्रह हैं । बहुरि कायका भी त्याग या अभ्यंतर में गिणना । सो कालका नियमकारी भी होय है, अर यावज्जीव भी होय है ।
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निका
पान ३६९