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वच
तप बाह्यद्रव्यकी अपेक्षा लिये हैं । तात आहारादिकका त्याग करना आदि इनमें प्रधान हैं । तातें इनकू बाह्यतप कहै हैं, तथा परके ए तप प्रत्यक्ष हैं, सर्वलोक इन तपनिकू जाने हैं, तातें भी बाह्यतप कहिये । तथा बाह्य कहिये मोक्ष
मार्गते बाह्य जे मिथ्यादृष्टि ते भी इनकू करै हैं । तातें भी इनकू बाह्यतप कहिये हैं ॥ आगें अभ्यंतर तपके भेद सर्वार्थ- दिखावनेत सूत्र कहै हैंसि दि
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॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ म.९
३६४ याका अर्थ-- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ए छह उत्तर कहिये दूसरा जो अभ्यंतरतप ताके भेद हैं । इनकै अभ्यंतरपणा कैसे हैं ? सो कहै हैं । ए तप अन्यमतिनिकरि नाहीं कीजिये हैं। तथा मनकूही
अवलंब्यकरि इनका प्रवर्तन है । तथा बाह्यद्रव्यकी अपेक्षा इनमें प्रधान नाहीं हैं, तातें इनकै अभ्यंतरपणा है । तहां २ प्रमादके वशते व्रतमें दोप उपजै ताके मेटनेझं करिये सो तौ प्रायश्चित्त है ॥ १ ॥ पूज्य पुरुपनिका आदर करना, सो विनय है ॥ २ ॥ कायकी चेष्टाकरि तथा अन्यद्रव्यकरि जो उपासना टहल करना, सो वैयावृत्य है ॥ ३
वि आलस्यका त्याग, सो स्वाध्याय है ॥ ४॥ परद्रव्यकेवि यह मैं हूं यह मेरा है ऐसा संकल्पका त्याग, सो १ व्युत्सर्ग है ॥ ५॥ चित्तका विक्षेप चलाचलपनेका त्याग, सो ध्यान हैं ॥ ६ ॥ ऐसें छह अभ्यंतरतप हैं ॥ आगें इन तपनिके भेद कहने सूत्र कहै हैं
॥ नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१ ॥ याका अर्थ- नवभेद प्रायश्चित्तके, च्यारिभेद विनयके, दशभेद वैयावृत्यके, पांचभेद स्वाध्यायके, दोयभेद व्युत्सर्गके ऐसे अनुक्रमतें जानने । ए ध्यानतें पहले पांच तपके भेद हैं । इहां यथाक्रमवचनतें प्रायश्चित्त नवभेद है इत्यादि जानना । वहरि प्राग्ध्यानात् इस वचनतें ध्यानके भेद बहुत हैं। तातें आगे कहसी ऐसा जानना ॥ आगे आदिका प्रायश्चित्ततपके नवभेद कहे, तिनका स्वरूपभेदके निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥ २२ ॥ l याका अर्थ--- आलोचन, प्रतिक्रमण, ते दोऊ, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना ए नवभेद प्रायश्चित्ततपके :