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________________ निका पान । है । तहां गुरुनिकू अपना प्रमादकरि लागै ' दोषका कहना ताकै दश दोष टालने, सो आलोचन है । बहुरि मोकं । दोष लागे हैं, ते मिथ्या होऊ निष्फल होऊ ऐसे प्रगट वचनकार कहना, सो प्रतिक्रमण है । बहुरि आलोचनाप्रतिक्रमण दोऊ करना, सो तदुभय है । बहुरि दोषकार सहित जे आहार पाणी उपकरण तिनका संसर्ग भया होय तौ तिनका त्याग करना, सो विवेक है । कायोत्सर्गआदि करना सो व्युत्सर्ग है । अनशन आदि तप करना, सो तप है। दिवस पक्ष मास आदिकी दीक्षाका घटावना, सो छेद है। पक्ष, मास आदिका विभागकरि दूरिपर वर्जन करना, संघवारे राखणा, सो परिहार है । अगिली दीक्षा छेदि नवा सरधे दीक्षा देना, सो उपस्थापन है ॥ याका विशेष लिखिये है। तहां प्रमादजनित दोषका तौ सोधन, अर भावकी उज्वलता, अर शल्यका मिटना, अर ३६५ अनवस्थाका अभाव, अरु मर्यादमें रहना, 'संयमकी दृढता इत्यादिकी सिद्धिके अर्थि प्रायश्चित्तका उपदेश है। तहां प्राय-: श्चित्तका शब्दार्थ ऐसा, प्रायः कहिये साधुलोकका समूह तिनका चित्त जिस कार्यमें प्रवते, सो प्रायश्चित्त कहिये । अथवा प्राय नाम अपराधका है, ताका चित्त कहिये शुद्ध करना, सो भी प्रायश्चित्त कहिये । तहां दशदोपवर्जित गुरुका अपना लग्या दोष कहना, सो आलोचन कह्या । सो गुरु एकान्तविपैं तौ बैठे होय, प्रसन्नचित्त होय, बहुरि देश काल जाननेवाला शिष्य होय सो विनयकरि अपना प्रमाददोषकू कहै । ताके दशदोष टालै ते कौन सो कहिये है । शिष्य ऐसा विचार, जो, गुरुनिकं कछु उपकरण दीजिये तो प्रायश्चित थोरा दे, ऐसे विचार कछू नजार करना, सो प्रथम दोष है | दुर्बल हौं, अशक्त हों, रोगी हों, उपवासादि करनेको समर्थ नाहीं, जो थोरासा प्रायश्चित्त दे तो दोपका निवेदन करूं ऐसें थोरा प्रायश्चित्त लेनेके अभिप्रायतें कहना, सो दूसरा दोप है ॥ अन्य जो न देखे तिनकू छिपाय अर अन्यके देखै | प्रगट भये ते दोष कहने ऐसा मायाचार करना सो तीसरा दोप है ॥ आलस्यतें, प्रमादत, अल्पअपराधकू तौ गिणे नाही, ताके जाननेका उत्साह नाहीं अर स्थूलदोपहीकू कहना, सो चौथा दोष है ॥ मोटे प्रायश्चित्त देनेके भयकरि बडा दोष तौ छिपावना अर तिसके अनुकूलही अल्पदोष कहना, सो पांचमा दोप है ॥ ऐसें व्रतके अतीचार होतें कह्या | प्रायश्चित्त होय है, ऐसे अभिप्रायतें प्रायश्चित्त जाननेकू गुरुनिकी उपासना टहल करना दोप न कहना, सो छटा दोष । है । पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक जो प्रतिक्रमण ताकू घणै मुनि भेले होय करै, तहां आलोचनाके शब्द बहुत होय तिनमें आप भी अपना दोष कहै अभिप्राय ऐसा होय जो कछू सुणेंगे कछू न सुणेंगे ऐसा विचारिकरि नचीत होना सो सातमां, । दोप है ॥ गुरुनिकरि दिये प्रायश्चित्तवि संदेह उपजावै, जो, यह प्रायश्चित्त दीया सो आगममें है कि नाही ! ऐसी शंका । कार अन्यमुनिनिषं पूछ सो आठमां दोष है ॥ कछु प्रयोजन विचारी अर आपसमान होय ताहीकू अपना प्रमाददोष ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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