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सर्वार्थसिद्धि
टिका
अ ९
ध्यानका उपचार कीजिये है, तैसें परीपहका भी उपचार जानना । अथवा इस सूत्रका अर्थ ऐसा भी किया है, “ एकादशजिने न सन्ति " ऐसा वाक्यशेष कहिये सूत्रमें चाहिये ते अक्षर लगावने । जातैं सूत्र हैं ते सोपस्कार कहिये अन्य उपकार करनेवाले अक्षरनिकी अपेक्षा करें हैं। तातें सूत्रमें वाक्यशेष कल्पना योग्य है । बहुरि वाक्य है सो वक्ता के आधीन है, ऐसा मानिये है । तातें इहां निपेधकूं न संति ऐसा वाक्यशेष लेना । जातैं इहां मोहके उदयका सहायके अभाव क्षुधाआदिकी वेदनाका अभाव है, तातैं ए परीषह भी नाहीं हैं ऐसा भी अर्थ जानना ॥
ए ग्यारह परीपहके नाम हैं । क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ऐसैं ग्यारह हैं । इहां दृष्टांत ऐसा भी जानना, जैसे विषद्रव्य है सो मंत्र औषधिके बल ताकी शक्ति मारनेकी क्षीण होय जाय तब ताकूं कोई खाय तौ मरे नाहीं, तैसैं ध्यानरूपी अग्निकार घातिकर्मरूप ईंधनकूं ज्या बाल्या, तिनके अनंत निर्वाध ज्ञानादिचतुष्टय प्रगट भया सो अंतरायके प्रभाव निरंतर संचयरूप शुभपुद्गल होय हैं, सो वेदनीयकर्म है । सो सहाय विना क्षीणवल हूवा संता अपना प्रयोजन उपजावनेकूं समर्थ नाहीं हैं, तैसें क्षुधाआदि वेदनारूप परिषहनिका अभावही जानना ॥
आगे पूछे है, जो, सूक्ष्मसांपराय आदिविर्षै भेदरूप केई परीपह कहै तौ ए समस्तपरीपह कौन विपैं हैं ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं—
॥ बादरसाम्पराये सर्वे ॥ १२ ॥
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याका अर्थ - बादरसांपराय कहिये प्रमत्ततै लगाय अनिवृत्तिबादरसांपराय जो नवमां गुणस्थान तहांताई सर्व परीपह हैं । तहां सांपराय तौ कपायकूं कहिये । बहुरि बादरकपाय जहां होय सो बादरसांपराय है । इहां गुणस्थानविशेषका ग्रहण तौ न करना, प्रयोजनमात्रका ग्रहण करना तार्ते प्रमत्तआदि संयमीका ग्रहण करना, तिनविर्षे कषायनिका आशय क्षीण न भया । तार्ते सर्व परीषह संभव हैं । इहां कोई पूछें, जो, कैसें चारित्रमें सर्व परीषह संभवे हैं ? तहां कहिये है, सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि संयमविषै कोई एक संयमविषै सर्वपरीषहनिका संभव है |
आगे शिष्य कहे हैं, जो, परीपहनिका स्थानविशेषका तौ नियम कह्या, सो जान्या । परंतु कैसे कर्मकी प्रकृतिका कैसे परीषह कार्य हैं ? यह न जान्या । ऐसें पूछै सूत्र कहे हैं
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निका पान
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