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सार्य
सिदि।
निका
नाहीं है । जैसे मृगका बच्चाकू एकांत उद्यानवि भुंखा मांसका इच्छक बलवान् वघेराने पकड्या ताकू कछू भी शरण नाही; तैसें । बहुरि यह शरीर है ताकू निकें पोषिये है तो भोजन करतेतांई सहाई है, कष्ट आये कछू भी सहाई नाहीं है । बहुरि बहुत यत्नकार संचय किये जे धन ते भी भवांतरमें लार न जाय हैं । बहुरि जिनते सुख दुःख वांटिकार भोगिये ऐसे मित्र हैं ते भी मरणकालवि. रक्षा नाहीं करै हैं । बहुरि रोगकरि व्याप्त होय तब कटुंबके भले होय ते भी। प्रतिपाल नाहीं कर सके हैं । जो भलेप्रकार धर्मका आचरण किया होय तो यह धर्म अविनाशी है सो संसारके कष्टरूपी समुद्रवि तरणेका उपाय है । यह प्राणी कालकरि ग्रहण किया होय तब इंद्र आदिक भी शरण न होय हैं । तातें पान कष्टवि धर्म ही शरण है, यह ही धन है । कैसा है ? अविनाशी है। और कछु भी शरण नाहीं है । ऐसें चितवन
३४३ करना सो अशरणानुप्रेक्षा है । याकू ऐसे चितवनेमें सदा अशरण हूं ऐसे संसारतें विरक्त होनेते संसारसंबंधी वस्तुनिवि ममत्वका अभाव होय है । भगवान अरहंत सर्वज्ञप्रणीत मार्गविही यत्न होय है ॥
कर्मके उदयके वशतें आत्माकै भवांतरकी प्राप्ति सो संसार है । सो पहले पांच परिवर्तनरूप व्याख्यान किया ही था । तिसविर्षे अनेक योनि कुलकोटि लाखनिके बहुत संकट पाईये हैं । ऐसें संसारविर्षे भ्रमण करता तो यहू जीव कर्मरूप यंत्रका प्रेन्या पिता होयकार भाई होय है, तथा पुत्र होय है, तथा पिता होय है, माता होयकारि बहिन होय | है, तथा स्त्री होय है, तथा पुत्री होय जाय है, तथा स्वामी होयकरि चाकर होय जाय है, दास होयकरि स्वामी होय जाय है । जैसे नट अनेक स्वांग धार नाचै है, तैसें अनेक पर्याय धरि भरमै है । बहुरि बहुत कहा कहै ? आपही आपके पुत्र होय जाय है । इत्यादिक संसारका स्वभाव चितवन करना, सो संसारानुप्रेक्षा है । ऐसें याकू चितवन करते पुरुपके संसारके दुःखके भयतै उद्वेग होयकारि वैराग्यभाव होय है । तब संसारके नाश करनेकू यत्न करै है । ऐसें संसारानुप्रेक्षा है । इस संसारभावनामें ऐसा विशेष जाननां, आत्माकी च्यारि अवस्था हैं, संसार, असंसार, नोसंसार, तत्रितयव्यपेत ऐसें । तहां च्यारिगतिवि4 अनेकयोनिमें भरमण करना, सो तौ संसार कहिये । बहुरि च्यारि गतिते रहित हाय फोर न आवना मुक्त होना, सो असंसार है। तहां शिवपदविर्षे परमआनंद अमृतरूपवि लीन है । बहुरि सयोगकेवली नोसंसार कहिये, जातें चतुर्गतिभ्रमणका तौ अभाव भया अर मुक्त भये नाही, प्रदेशनिका चलना पाईये है, तातें ईपत्संसार है, ताकू नोसंसार कहिये । बहुरि अयोगकेवली चऊदमां गुणस्थानवालेकै तत्रितयव्यपेत है । जाते चतुर्गतिका
भरमण नाहीं अर मुक्त भये नाहीं, तातें असंसार भी नाहीं अर प्रदेशनिका चलना नाहीं, तातें नोसंसार भी नाहीं, तातें 12 | तीनहू अवस्थातै जुदीही अवस्था है, ताळू तत्रितयव्यपेत ऐसा नाम कह्या । सो यह संसार अभव्यकी अपेक्षा तथा ।