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सर्वार्थ
सिद्धि
टीका
अ. ९
जाकै ममत्व होय सो सदा शरीरसंबंधी दुःखेकूं भोगवै है । ऐसें आकिंचन्यके गुण ममत्वकै दोष हैं | बहुरि ब्रह्मचर्य पालै ताकै हिंसादिदोष न लागे हैं । सर्व गुणसंपदा जामें वसै है । बहुरि जो स्त्री अभिलाषी है ताहि सर्व आपदा आय लागें हैं । ऐसें ब्रह्मचर्यके गुण हैं अब्रह्मके दोष हैं ॥
उत्तम क्षमादिक गुण अर तिनके प्रतिपक्षी क्रोधादिकके दोषका चितवन किये क्रोध आदिका अभाव होतैं तिनके निमित्त कर्मका आश्रव होय था, ताकी निवृत्ति होतें बडा संवर होय है । यह धर्म अविरतसम्यग्दृष्टि आदिकें जैसें क्रोधादिककी निवृत्ति होय, तैसें यथासंभव होय है । अर मुनिनिके प्रधानपणे हैं | आगे शिष्य कहें है, जो क्रोधआदिका न उपजना क्षमादिकका आलंबन होय है ऐसा कह्या, सो यह आत्मा क्षमादिककूं कैसें अवलंबन करै । जातैं क्रोधादिक न उपजै । ऐसें पूछें, कहै है, जो, जैसें लोहका पिंड तपाया हूवा अनि तन्मय होय है, तैसें क्षमादिकर्ते तन्मय होय जाय, तब क्रोध आदि न उपजै । यामें जो आत्महितका वांछक है सो बारह अनुप्रेक्षाका बार बार चितवन करै ॥
॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वाशुच्यास्त्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥
याका अर्थ - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्मवाख्यात्व इन बारहनिका वारंवार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है । तहां उद्यात्त कहिये लगे हुए अर अनुपात्त कहिये बाह्य जे द्रव्य तिनके संयोग वियोग होना, सो अनित्यपणा है । तहां आत्मा रागादिरूप परिणामकारी कर्मनो कर्मभावकार ग्रहे जे पुद्गलद्रव्य, ते तो उपात्त कहिये । अर जे परमाणुआदि वाह्यद्रव्य हैं, ते अनुपात हैं । तिन सर्वानिके द्रव्यस्वरूप तौ नित्यपणां है । बहुरि पर्यायस्वरूपकरि संयोगवियोगरूप है । तार्तें अनित्यपणा है । तातैं यह शरीर इंद्रियनि के विपयरूप उपभोग परिभोग द्रव्य हैं ते समुदायरूप भये जलके बुदबुदेकी ज्यौं अनवस्थिस्वभाव हैं । गर्भकूं आदि लेकर जे अवस्थाके विशेष तिनविर्षे सदा संयोग वियोग जिनमें पाईये हैं । इनविर्षे अज्ञानी जीव मोहके उदयके वशर्तें नित्यपणा' माने है । संसारवि कछु भी ध्रुव नाहीं है । आत्माका ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाव है, सोही ध्रुव है । ऐसें चितवन करना, सो अनित्यानुप्रेक्षा हैं । याप्रकार याके चितवन करनेवाले भव्यजीवकै शरीरादिकविर्षे प्रीतिका अभाव जैसें भोगकरि छोडे भोजन गंधमाला आदिक तिनकी ज्यों वियोगकालविषै भी शोक आदि न उपजै है ॥
या संसारविषै जन्म जरा मरण व्याधि मृत्यु आदि कष्ट आपदासहित भ्रमता जो यह जीव ताके कोई भी शरण
य -
निका
पान ३४२