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परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई।
...श्रीवीतरागाय नमः
टीका
वीर संवत् २४८१
॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ [ प्रथप्रकाशन समिति, फलटण अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीका वचनिका पंडित जयचंदजी कृता
वचनिका पान ३२८
दोहा- आस्रव रोकि विधानते, गहि संवर सुखरूप ।
पूर्वबंधकी निर्जरा, करी नमू जिनभूप ॥१॥
ऐसें मंगलके अर्थि जिनराजकू नमस्कार कर नवमां अध्यायकी आदिवि सर्वार्थसिद्धि नाम टीकाकार कहै हैं, जो, बंधपदार्थ तो कह्या अब याके अनंतर है नाम जाका ऐसा जो संवरनाम पदार्थ, ताका निर्देश करनेका अवसर है, याते तिसकी आदिमें यह सूत्र है
॥ आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १ ॥ याका अर्थ-- आस्रवका निरोध सो संवर है । तहां नवीन कर्मका ग्रहण करना, सो आस्रव है । सो तो पहले व्याख्यान किया । ताका निराध, सो संवर है । सो दोयप्रकार है, भावसंवर द्रव्यसंवर ऐसें । तहां संसारका कारण जो क्रिया, ताकी निवृत्ति कहिये न होना, सो भावसंवर है,। बहुरि तिस क्रियाके रोकनेते तिसके निमित्ततें कर्मपुद्गलका ग्रहण होय तिसका विच्छेद भया ग्रहण होता रह गया सो द्रव्यसंवर है। सो विचारिये हैं। कौन गुणस्थानविर्षे किस आश्रवका संवर भया? सो कहिये हैं । मिथ्यादर्शनके उदयके वशीभूत जो आत्मा ताकू मिथ्यादृष्टि कहिये । इस गुणस्थानविर्षे मिथ्यादर्शनकं प्रधानकरि जो कर्म आश्रव होय था, सो तिस मिथ्यादर्शनके निरोध कहिये अभावकारी सासादन आदि