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सर्वार्थसिदि
पान
माण
नीचगोत्र ऐसे ब्यालीस प्रकृति पापकर्मकी हैं । ऐसें पुण्यपापप्रकृति सर्व मिलि एकसौ चौतीस भई, सो यह कथन । | बंधकीअपेक्षा जानना । बंधप्रकृति एकसौ वीस कही हैं । तहां दर्शनमोहकी तीनि प्रकृतिमें बंध एक मिथ्यात्वहीका है ।। पीछे तीनि होय हैं, तातें दोय तौ एक घटी। बहुरि बंधन संघात शरीरतें अविनाभावी है, तातें शरीरहीमें अंतर्भूत किये, ताते दश ए घटी । बहुरि वर्णादिक वीस हैं । तिनकू संक्षेपकरि च्यारिही कहे, तातें सोलह ए घटी । ऐसें अठाईस
घटनेते एकसो वीस रही । सो इहां वर्णआदि च्यारि पुण्यरूप भी हैं पापरूप भी हैं। तातें दोयबार गिणते निका टीका च्यारि बधी हैं । बहुरि इनहीको सत्ताकी अपेक्षा गिणिये तब वर्णादिक वीस दुबार गिणते एकसौ अठसठि प्रकृति होय । तामें पुण्यप्रकृति तौ अठसठि होय हैं । सो कैसे हैं? वेदनीय १, आयु ३, गोत्र १, नामकी तिरेसठि तहां गति २,
| ३२६ जाति १, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, संस्थान १, संहनन १, अंगोपांग ३, वर्णादिक २०, आनुपूर्व्य २, विहायोगति, २, त्रस आदि १०, अगुरुलघु १, परघात १, उछ्वास १, आतप १, उद्योत १, निर्माण १, तीर्थकर १, ऐसें । बहुरि पापप्रकृति सौ । तहां घातिकर्मकी तौ ४७, वेदनीय १, आयु १, गोत्र १, नामकर्मकी ५०, तहां गति २, जाति ४, संस्थान ५, संहनन ५, वर्णादिक २०, आनुपूर्व २, त्रसस्थावरआदि १०, उपघात १, प्रशस्तविहायोगति १, ऐसें जानना । ऐसें बंधपदार्थ कह्या, सो यह अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानीनिकै तौ प्रत्यक्षप्रमाणके गम्य है, ते प्रत्यक्ष जान हैं। बहुरि अन्यके तिनके उपदेश आगमप्रमाणके गम्य है । तातें भव्यजीवनि तिनका उपदेश्या आगमतें जानि इस कर्मबंधके विध्वंसका उपाय करना योग्य है ॥
॥ छप्पय ॥ बंध च्यारि परकार बांधि संसार भमें जिय, मिथ्या अविरत अरु प्रमादहू कषाय योग लिय । दुःख अनेक परकार जनममरणादिक भुगतहि, गिनत नाही सविकार ज्ञान परभावसु जुगतहि । जिनआगमके सरधानविन चारित सत्यारथ नहीं, इम शुद्धातम अनुभवविगरि मुकति नाहि मुनि यों कही ॥१॥