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________________ वच मिदि .41 दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥ ९ ॥ मार्थयाका अर्थ- दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय अकपायवेदनीय कपायवेदनीय ए च्यारि तिनकी संख्या तीनि दोय नव || निका टीका | सोलह इनका यथासंख्य संबंध करि लेणा । तहां दर्शनमोहनीयके तीनि भेद, सम्यक्त्व मिथ्यात्व मिश्र ऐसें । सो पान बंधअपेक्षा तो एक मिथ्यात्वही है । अर सत्ताकी अपेक्षा तीनिप्रकार होय तिष्ठै है। तहां जाके उदयतें सर्वज्ञका भाण्या ३१३ जो स्वर्गमोक्षका मार्ग, तातै पराङ्मुख होय तत्त्वार्थका श्रद्धानविपें उत्साहरहित होय हितअहितका भेद जाननकू असमर्थ होय ऐसा मिथ्यादृष्टि होय ताका ऐसा भाव सो मिथ्यात्व कहिये । बहुरि तिसही मिथ्यात्वका भेदकू सम्यक्त्व संज्ञा है । जाते जो शुभपरिणामकरि विशुद्धताके बलतें जाका विपाकरस हीन होय गया होय उदासीनकी ज्यौं अवस्थित हुवा संता आत्माके श्रद्धानकू रोकि सकै. नाहीं, तिसके उदयकू वेदता संता पुरुप सम्यग्दृष्टिही कहिये, सो सम्यक्त्व नाम है। ।। बहुरि सोही मिथ्यात्व अपना रस आधाक शुद्ध भया आधाक मिथ्यात्व रह्या ऐसा होय ऐसें अमलके कोऊ होय है तिनकं जलते पखालतें पखालतै तिनकी मदशक्ति क्यों मिटी क्यों रही होय है तैसें होय, सो मिश्र कहिये, याकं सम्यमिथ्यात्व भी कहिये। याके उदयतें आत्माका श्रद्धान नामा परिणाम मिथ्यात्व सम्यक्त्व दोऊ मिल्या हुवा मिश्ररूप A होय है। जैसे मदके कोंट्र धोयेनै आधे शुद्ध भये तिनकू कोई भात पचाय खाय ताके निमित्तते कळू अमल कछु चेतन ऐसा मिश्रपरिणाम होय है तैसें जानना ॥ बहार चारित्रमोहनीयके दोय भेद अकषायवेदनीय कषायवेदनीय । तहां ईषत् किंचित् कपायकू अकपाय कहिये, इहां अकार निषेधवाचक न लेणा ईपत् अर्थ लेणा । सो याके नव भेद हैं, हास्यादिके भेदते । तहां जाके उदयतें हास्य प्रगट होय, सो हास्य । 18| कहिये । बहुरि जाके उदयतें कछु वस्तुसूं आसक्त होना सो रति है। बहुरि रतिते विपरीत कछु न सुहावै सो अरति है । बहार जाके उदयतें इष्टका वियोगकरि परिणामखेदरूप होय सोच करै रुदनादिक करै, सो शोक है । बहार जाके उदयतें दुःखकारी पदार्थ देखि उद्वेग करना डरपना भागना सो भय है । बहुरि जाके उदयतें अपना दोष तौ संकोचना परका दोप देखि परिणाम मलिन करना सो जुगुप्सा है । बहुरि जाके उदयतें स्त्रीसंबंधी भाव पावै सो स्त्रीवेद है। जाके उदयतें पुरुषसंबंधी भावनिकू पावै, सो पुरुपवेद है । जाके उदयतें नपुंसकसंबंधी भावनिकू पावै, सो नपुंसकवेद है। बहार कपायवेदनीय सोलहप्रकार है। तहां अनंतानुबंधी क्रोध मान
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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