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सर्वार्थ
टीका
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शिष्यका प्रश्न जो ज्ञानदर्शनावरणकर्मका आश्रव कहा ? ऐसे प्रश्नतें ज्ञानदर्शन लेने । ऐसें कहनेते ज्ञानदर्शनांवर्षे तथा ।। तिनके कारण जे गुरु पुस्तक आदि तिनविर्षे प्रदोषादिक करै ते लगाय लेने । जातें गुरु आदि ज्ञानके कारण हैं, ते भी जानने । ऐसें ए प्रदोषादिक ज्ञानदर्शनावरणकर्मके आश्रववके कारण हैं। यहां ऐसा जाननां, जो, एककारणकरि अनेक कार्य होय हैं, सो प्रदोषादिक ज्ञानकेविर्षे होय । तैसेंही दर्शनविपैं होय ऐसे समान हैं। तो दोऊ कर्मका आश्रव
वचरूप कार्य न्यारा न्यारा करै हैं । अथवा विषयके भेदतै आश्रवका भी भेद है । तातै ज्ञानसंबंधी प्रदोपादिक ज्ञाना-: निका वरणकर्मका आश्रव करै है । दर्शनसंबंधी दर्शनावरणका आश्रव करै है ॥
पान इहां एता और जाननां, जो, आचार्योपाध्यायतें तौ प्रतिकूल रहना, अकाल अध्ययन करना, श्रद्धान न करना, अभ्यासविर्षे आलस्य करना, अनादरसे शास्त्रके अर्थकू सुनना, तीर्थ कहिये मोक्षमार्ग ताका उपरोध कहिये रोकनाचलनैं न देना, बहुश्रुत होय गर्व करना, झूठा उपदेश करना, बहुश्रुतकी अवज्ञा करनी, परमतकी पक्ष करनेविर्षे पंडितपणा करना, अपने मतकी पक्ष छोडणी, असंबद्धप्रलाप कहिये वृथा बकवाद करना, उत्सूत्रभापण, ज्ञानाभ्यास करै सो ४। कुछ लौकिकप्रयोजन लधै तैसें करै, शास्त्रको बेचे, प्राणीनिका घात करै इत्यादिक ज्ञानावरणकर्मके आश्रवकू कारण हैं। । बहुरि तैसेंही दर्शनविर्षे मात्सर्य कहिये पैलै देखें ताकू दिखावै नहीं, तथा देखताके देखनेवि अंतराय करै, बहुरि पैलाके
नेत्र उपाडै, तथा परके इन्द्रियनिविर्षे प्रतिकूलता कहिये बिगाड्या चाहैं, अपनी दृष्टि सुंदर होय बहुरि दीखता होय ताका गर्व, तथा नेत्रनिकू आयत लंबे करने फाडिकार देखना, तथा दिनविर्षे सोवना, तथा आलस्यरूप रहना, तथा नास्तिकपक्षका ग्रहण करना, सम्यग्दृष्टीफें दूषण लगावना, कुतीर्थकी प्रशंसा करनी, प्राणीनिका घात करना, यतीश्वरनिकं देखि ग्लानि करनी इत्यादि दर्शनावरणकर्मके आश्रवकं कारण हैं। आगैं, जैसे ज्ञानदर्शनावरणकर्मका आश्रवका विशेष कह्या, तैसेंही वेदनीयकर्मका कहै हैं, ताका सूत्र
॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य ॥ ११ ॥ याका अर्थ- दुःख शोक ताप आक्रंदन वध परिदेवन एते आपकै तथा परकै तथा दोऊकै करै करावै ते असातावेदनीयकर्मके आश्रवकू कारण हैं। तहां पीडारूप परिणाम सो तौ दुःख है । अपना उपकारी इष्टवस्तुके संबंधका विच्छेद होते खेदसहित निराशपरिणाम होय, सो शोक है । कोई निंद्यकार्य करनेतें अपना अपवाद होय तब मन मैला होय तिसका पश्चात्ताप बहुत करना, सो ताप है । कोई निमित्ततें परिताप भया तातें विलापकरि अश्रुपातसहित प्रगट