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सर्वार्थ
पान
॥ अपरा पल्योपममधिकम् ॥ ३९॥ याका अर्थ- व्यंतरदेवनिकी उत्कृष्टस्थिति एक पल्य कछु अधिक है। आगें ज्योतिषी देवनिकी उत्कृष्टस्थिति कहनेयोग्य है ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं
वचसिदि
निका टीका
॥ज्योतिष्काणां च ॥ ४०॥ याका अर्थ- इहां च शब्द है सो पहले सूत्रमें स्थिति कही ताका समुच्चय करै है। तातें ज्योतिषी देवनिकी ||२०० o आयु साधिक एक पल्यकी है। ___ आगें ज्योतिपीनिकी जघन्यस्थिति कहा है ! ऐसे पूछ सूत्र कहै है
॥ तदष्टभागोऽपरा ॥ ४१ ॥ याका अर्थ- तिस पल्यके आठवे भाग ज्योतिपी देवनिकी जघन्य स्थिति है । इहां अधिक कही विशेप लिखिये हैं । उत्कृष्टस्थितिकामें अधिक कही सो उत्कृष्टस्थितिमें केती अधिक है सो कहिये हैं। तहां चन्द्रमाकी तो एकलाखवर्प अधिक है। सूर्यकी एकहजारवर्प अधिक है। शुक्रकी एकसौवर्ष अधिक है। बृहस्पतिकी एक पल्यकी है, अधिक नाही । अन्य ग्रहनिकी आध पल्यकी उत्कृष्ट आयु है । नक्षत्रनिकी आध पल्यकी उत्कृष्ट आयु है । तारानिकी पल्यका चौथा भाग आयु है । बहुरि जघन्य चन्द्रमा सूर्य आदिकी तो पल्यका चौथा भाग है । बहुरि तारानिकी । अर नक्षत्रनिकी पल्यका आठवा भाग है ॥ बहुरि कोई पूछे है, लौकान्तिक कहे तिनकी स्थिति न कही सो तौ केती हैं ? तहां कहिये है
॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥ याका अर्थ- जो लौकान्तिक देवनिकी सर्वहीकी आठ सागरकी स्थिति है। ते सर्वही बराबर है, सर्वके शुक्ललेश्या है, पांच हाथका सर्वका शरीर है । इहां कोई तर्क करै है, जो, प्राणिकी स्थिति कर्मकी विचित्रतासूं हीनाधिक कहिये है, तो जैसे घट आदि वस्तुनिकी स्थिति कर्मकी अपेक्षा विना है, तैसेंही क्यों न कहो ? ताका समाधान- जो, घट