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करै तो आहारकही है । बहरि विग्रहगतिविर्षे तीन समय अनाहारक रहै है। ऐसे गमनविशेपका निरूपण छह सूत्रनिकार किया ।।
आगें, ऐसे भवांतरने गमन करता जो जीव ताकै नवीन शरीरकी उत्पत्तिका प्रकार प्रतिपादनकै अर्थि सूत्र कहै हैं
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सर्वार्थसिन्दि
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टीका
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॥ सम्मूर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ याका अर्थ-- जीव नवीन शरीर धरै है ताके जन्म तीन प्रकार हैं। संमूर्छन गर्भ उपपाद ऐसें ॥ तहां ऊर्ध्व | अधो तिर्यक् ऐसै तीन जे लोक तिनिवि जहां तहां अवयवसहित देह बनि जाय ताळू संमूर्छन कहिये । संमूर्छन । शब्दका अर्थ अवयवका कल्पन है ॥ बहुरि स्त्रीके उदरवि वीर्यलोहीका गरण कहिये मिश्रित होनां मिलनां सो गर्भ है। अथवा माताकरि उपयुक्त किया जो आहार ताका जावि गरणा कहिये निगलना होय सो गर्भ कहिये ॥ बहुरि जावि प्राप्त होयकरिही उपजै उटै चलै ऐसा देवनारकीनिका उपजनेका स्थान ताकू उपपाद कहिये ॥ ए तीन संसारी जीवनिकै जन्मके प्रकार हैं । सो शुभ अशुभ परिणामकै निमित्ततें बंध्या जो कर्म ताके भेदनिके उदयकरि किये होय हैं । इहां विशेप, जो, एकजन्मके भेद सामान्यपणे किये हैं इनिहीकै विशेषकरि भेद कीजिये तो अनेक हैं । बहुरि गर्भजन्म तथा उपपादजन्मके कारण तौ प्रगट हैं। बहुरि संमूर्छन जन्मके वाह्य कारण प्रत्यक्षगोचर नाही भी हैं । जहां तहां उत्पत्ति होय जाय है ऐसे जाननां ॥
आगें, अधिकाररूप किया जो संसारके भोगनेकी प्राप्तिका आश्रयभूत जन्म, ताकी योनिके भेद कह्या चाहिये । ऐसे पू॰ सूत्र कहै हैं--
॥ सचित्तशीतसँवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ ३२ ॥ । याका अर्थ- सचित्त शीत संवृत इनितें इतर अचित्त उष्ण विवृत बहुरि तीनूंहीकै मिश्रतें ऐसे नव भेद योनिके | हैं । आत्माका चैतन्यका विशेषरूप परिणाम सो तो चित्त है । तिस चित्तकार सहित होय सो सचित्त कहिये । बहुरि शीत है सो स्पर्शका विशेष है । जैसे वर्णका भेद शुक्ल । तहां शीत ऐसा द्रव्यवचन भी है । गुणवचन भी है । तातें शीत कहनेते शीतल द्रव्य भी लेना । बहरि संवृत नाम आच्छादित ढकेका है । जाका प्रदेश लखनेमें न 3 इतरकरि सहित होय ताकू सेतर कहिये । प्रतिपक्षी सहित होय ते अचित्त उष्ण विवृत वहरि दोऊ मिलै तहां मिश्र कहिये । सचित्ताचित्त शीतोष्ण संवृतविवृत ऐसे नव भये । इहां सूत्रमैं चशब्द है सो मिश्रकं भी योनिही कहै है।