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सर्वार्थ
सिद्धि
रावचनिका
टीका
पान
आर्गे, अन्य इंद्रियनिके स्वामी दिखावनेकै आर्थि सूत्र कहै हैं
॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥ याका अर्थ- कृमि कहिये लट आदिक, पिपीलिका कहिये कीडी आदिक, भ्रमर कहिये भौंरा आदिक, मनुष्य आदिक इनिकै स्पर्शन, पीछे एक एक इंद्रिय बधती है ॥ एक एक ऐसा वीप्सा कहिये बारबार कहनेके अर्थमैं दोय बार एकशब्द कह्या है । तहां कृमिळू आदिकरि अरु इंद्रियवि स्पर्शनकू आदिकरि एक एक बधता जोडनां । बहुरि
आदिशब्द सर्वकै जुदा जुदा कहनां । इहां कृमि कहिये लटकू आदिकरि जीवनिकै रसनकरि अधिक स्पर्शन है । स्पर्शन रसन ए दोय इंद्रिय हैं । बहुरि पिपीलिका कहिये कीडी आदिक जीवनिकै स्पर्शन रसन घ्राण ऐसे तीन इंद्रिय हैं। बहुरि भ्रमर आदिक जीवनिकै स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु ऐसे च्यार इंद्रिय है । बहुरि मनुष्य आदि जीवनिकै स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्र ऐसे पांच इंद्रिय हैं । ऐसे एकएक वधता यथासंख्य जाननां । इनकी उत्पत्ति स्पर्शनकी उत्पत्तिकी ज्यों कर्मनिके निमित्ततें हो है। तहा आगै आगै जे इंद्रिय जिनिकै नाही, तिनिकै तिनि इंद्रियावरण कर्मका सर्वघातिस्पर्द्धकनिका उदय जानि लेना ॥
आर्गे ए कहे जे दोय भेदरूप तथा इंद्रियभेदकार पंचप्रकार संसारी जीव तिनिविर्षे पंचेंद्रियके भेद न कहे, तिनिकी प्रतिपत्तिकै अर्थि सूत्र कहै हैं
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॥ सचिनः समनस्काः ॥२४॥ याका अर्थ- पंचेंद्रिय जीवनिवि जे मनसहित है ते संज्ञी हैं ॥ मन तौ पूर्व कह्या, सो जाननां । तिस मनकार सहित होय जे समनस्क ते संज्ञी हैं । संज्ञीके कहनेकी सामर्थ्यहीते अवशेप संसारी जीव रहे ते असंज्ञी हैं ऐसा सिद्ध भया । ताते याका न्यारा सूत्र न कह्या । इहा कोई तर्क करै है, जो, संज्ञी ऐसा कहनेतेही अर्थ तो आय गया । ताका समनस्क ऐसा विशेपण तो अनर्थक है । जातें मनका व्यापार हितकी प्राप्ति अहितका परिहारकी परीक्षा करना है, सो संज्ञा भी सोही है । ताका समाधान, जो, ऐसा कहनां युक्त नाही । जाते संज्ञा ऐसा शब्दके अनेक अर्थ हैं तहां व्यभिचार आवै है । तहा प्रथम तौ संज्ञा नाम कहिये है सो नामरूप संज्ञा जाकै होय सो संज्ञी ऐसा कहनेतें सर्वही प्राणी नामसहित हैं तहां अतिप्रसंग भया । बहुरि कहै संज्ञा संज्ञानं कहिये भले ज्ञान कहिये है। तौ तहां भी