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श्रीमद्वल्लभाचार्य इसके दो दृष्टान्त देना में उचित समझता हूं । कर्तृत्वाकर्तृत्व विचार और सावयवत्व निरवयवत्व विचार । कर्तृत्वाकर्तृत्वविचारमें पुरातन दो मत हैं । श्रीशंकराचार्य प्रभृतिका मत है कि ब्रह्म अकर्ताही है उसका कर्तृत्व औपचारिक है । और श्रीरामानुजार्य प्रभृतिका मत है परमात्मा कर्ताही है अकर्तृत्व तो गौण है औपचारिक है। विचारपूर्वक देखा जायतो दोनो पक्षमें तर्कको वलवत्ता आती है और वेदवाक्यको गौणता । जब दोनो तरहकी श्रुतियां मिलती हैं तव एक तरहकी श्रुतिको अवश्य संकुचित करना पड़ेगा । बस इसेही तर्ककी बलवत्ता कहते हैं । श्रीमद्वल्लभाचार्य का मत है कि ब्रह्म दोनो प्रकारका है क्यों कि वेदमें दोनो प्रकारकी श्रुतियां है । जब वेदमें ब्रह्मको कर्ता और अकर्ता दोनो प्रकारका कहा है तो वेदप्रमाणवादी और आचार्यको उचित है कि दोनो तरहका मानै । श्रीमद्वल्लभाचार्यकी प्रतिज्ञा है कि 'वेदश्च परमाप्तोऽक्षरमात्रमप्यन्यथा न वदति। यहां एक ही ब्रह्ममें कर्तृत्व और अकर्तृत्व होनेका विरोध आता है। किन्तु आचार्यश्री ने वेदोक्त मीमांसा के द्वारा ही इसका समाधान कर दिया है । वेदमें ब्रह्मको अचिन्त्यैश्वर्य
और अलौकिकसामर्थ्यवाला कहा है। अचिन्त्यैश्वर्य और अलौकिकसामर्थ्य ब्रह्ममें कर्तृत्व और अकर्तृत्व दोनो होसक्ते हैं । इसतरह वेदानुकूल मीमांसा सरणिका ग्रहण करनेसे आचार्य पदके सम्पूर्ण योग्य श्रीमद्वल्लभाचार्य हैं।