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और उनके सिद्धान्त।
१२-आचार्यमें ईश्वरत्व और आचार्यत्व दोनो होते हैं आचार्यत्व प्रधान होता है और ईश्वरत्व गौण होता है । और अवतारमें भगवत्व प्रधान होता है । गौराङ्ग आदिकी अवतारत्वेन प्रसिद्धि है आचार्यत्वेन नहीं। यदि आचार्यत्व होता है तो वह गौण होता है । कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु सर्वसामर्थ्य ये ईश्वर शब्दका प्रवृत्ति निमित्त है । वह अवतारमें ही होसक्ता है आचार्यमें गौण है । ये सामर्थ्य स्वरूपमें ही प्रधान है । अत एव उसे प्रमेयबल कहते है । स्वरूपसम्वन्धमात्रसे उद्धार कर देना यह प्रमेयवलका काम है। वह अवतारमें होता है । आचार्यमें प्रमाण वल है। प्रमेय वल गुप्त है, कार्यकारी नहीं है । अवतारके साथ जीवका किसी तरहका भी सम्बन्ध हो उद्धार हो जायगा किन्तु आचार्यके साथ सब तरहके सम्बन्धसे उद्धार नहीं होसता । उसके साथ प्रमाणसम्बद्ध सम्बन्धही होनेसे उद्धार होता है।
१३-आचार्यत्व जन्मसे नहीं विद्यासे है। और अवतारत्व विद्यासे नहीं जन्मसे है । अवतारका प्रवृत्तिनिमित्त दूसरा है, आचार्यका प्रवृत्तिनिमित्त दूसरा है। अवतारका प्रवृत्तिनिमित्त स्वरूपसामर्थ्य है । और आचार्यका प्रवृत्तिनिमित्त वेदशास्त्रोक्त आचरण है । अवतारमें ईश्वरत्व प्रधान है इसलिये ही नास्तिकवाद स्वभाववाद कर्मवाद आदि वेदविरुद्धवाद भगवान्में दृष्टिगत होते हैं। किन्तु आचार्यमें आचार्यत्व