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और उनके सिद्धान्त । २७३ ९-प्रभु को निवेदन करके ही वस्तुमात्र का उपयोग करना चाहिये।
१०-सेवक का स्वामी के प्रति जो धर्म है उसी का अनुसरण करते हुए प्रभुकी परिचर्या करनी। अपने सुखकी इच्छा न रख, अपने प्रभु के ही सुख की इच्छा रखनी ।
११-सेवा करने में कोई भी भावान्तर नहीं आना चाहिये । यदि आजाय तो प्रभु से क्षमायाचना करनी और फिर वही दोष कभी भी न आवे ऐसा प्रयत्ल करना ।
१२-वैष्णव को दीनता अवश्य रखनी । जिसको सची दीनता प्राप्त होती है उसे प्रभु की अंगीकृति का परिचय होता है । दीनता प्राप्त करने के लिये 'श्रीकृष्णः शरणं मम' यह मन्त्र उत्तम साधन है।
१३-विवेक, धैर्य और आश्रय की रक्षा प्रत्येक वैष्णव को करनी चाहिये । 'भगवान् सब अपनी इच्छा से करेंगे' इस भावना को विवेक कहते हैं । प्रभु के आगे कभी दुःख की निवृत्ति के लिये अथवा सुख की प्राप्ति के लियें, प्रार्थना नहीं करनी । आपत्ति के समय में कार्य में हठका त्याग करना और धर्माधर्म में धर्म का तत्व समझ कर उसे ही अपनाना । व्यर्थ के हठको ग्रहण न करना, इसे विवेक कहते हैं।
सर्व प्रकार से हरि की शरणागति रखनी । भय प्रसंग