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श्रीमद्वल्लभाचार्य मिलता है। मिश्रपुष्टि जीव भी क्रम क्रम से अन्त में श्रीभगवत्स्वरूप को पा सकते हैं ।
मर्यादा सृष्टि प्रभु की वाणी द्वारा उत्पन्न हुई है । इस लिये उन की आसक्ति वाणी रूप वेद में ही विशेष होती है। प्रभ के स्वरूप में उन की आसक्ति नहीं होती। वेद के ज्ञान में ही आसक्ति रहने से उसी को चरम फल मानते हैं इसलिये ज्ञानरूप वेद उन को फल देता है । प्रभु प्राप्ति का फल उन को नहीं मिलता ।
प्रवाही सृष्टि प्रभु की इच्छा से इस जगत् के प्रारंभ से अन्तपर्यन्त, महाकाल पर्यन्त, लौकिक सुखदुःख में ही आसक्त रहकर उसी में मटका करते हैं। ये सहज आसुर ( अहंकारी) हैं।
इन आसुरीजीवो में से भी कितने ही चर्षणी वाच्य जीव हैं । वे पुष्टि प्रवाह और मर्यादा में भ्रमण किया करते हैं। उन २ मार्ग में दीक्षित हो तदुक्त कर्म करते हैं। किंतु उनका चित्त किसी में भी लगता नहीं है। हमेशां डगमग डोलता रहता है । उनको अपनी बाह्य क्रिया के अनुसार लौकिक फल प्राप्त होता है।
८-दोषों की निवृत्ति के लिये 'ब्रह्मसंबन्ध' अवश्यलेना चाहिये ब्रह्मसंबंध के अनन्तर ही जीव सेवा का अधिकारी हो सकता है।