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और उनके सिद्धान्त। २२३ अर्थात् जिस प्रकार गंगानदी का प्रवल प्रवाह झाड झंखड को लेकर पर्वतादि बलवान् विघ्नों को भी भेदकर समुद्र में मिलता है उसी प्रकार भगवद्भक्त की जो लौकिक और वैदिक वाधाओं को दूर कर भगवान् के चरणो में मन की अविरत गति होती है उसे निर्गुण भक्ति कहते हैं । ___ यह भक्ति अहैतुकी, कामना न रखकर, फल की इच्छा न रखकर, भगवान् की केवल प्रेमपूर्वक सेवा करने के लिये होनी चाहिये । यह भक्ति केवल पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के लिये ही होनी चाहिये । उनके अवतारों के लिये अथवा और २ देवताओं के विषय में नहीं होनी चाहिये ।
ऐसी भगवान् पर आत्यन्तिकी और अहैतुकी भक्ति किसी ___ भी फल का स्पर्श नहीं करती। अधिक तो क्या, इस भक्ति
के रस में डूब कर भक्त लोग सालोक्य अर्थात् वैकुण्ठ के निवासको, सार्टि अर्थात् भगवान् जैसे ऐश्वर्य को, सामीप्य अर्थात् भगवान् के सहवास को, सारूप्य अर्थात् भगवान् के सदृश स्वरुप को भी, भगवान् के दिये जाने पर भी, नहीं चाहते। __ भगवान् में अपनी निर्हेतुकी भक्ति रख कर जो वैष्णव ईश्वर की सेवा करते हैं वे ही सच्चे वैष्णव हैं । भगवान् भी ऐसे ही भक्तों पर प्रसन्न होते हैं । भगवच्छात्र श्रीमद्भागवत में कहा है