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श्रीमद्वल्लभाचार्य ४७ चौर्यस्वरूप नाम लीला ५० गीतातात्पर्य ४८ जन्माष्टमी निर्णय ५१ मुक्तितारतम्य निर्णय ४९ गीतगोविन्दार्थ ५२ गायत्र्यर्थ कारिका __ आपके कुमारावस्था में ही श्रीमहाप्रभुजी ने संन्यास ग्रहण कर लिया था। तथा काशी में आप एकान्त वास कर श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का ध्यान किया करते थे । आपके आसुर व्यामोह (देह छोडने) के कुछ समय पहले श्रीविठ्ठलनाथजी एवं आपके अग्रज श्रीगोपीनाथजी आपके दर्शनार्थ पधारे । श्रीमहाप्रभुजी उस समय किसी से भी बोलते तक न थे। श्रीगुंसाईजी ने जब कुछ उपदेश ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की तब आपने साढे तीन श्लोक लिख कर दिये । वे ही सम्प्रदाय में शिक्षा साधत्रय श्लोकी के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इस उपदेश के समय में ही भगवान् स्वयं प्रकट हुआ और निम्नांकित सार्धश्लोक अपने श्रीमुख से कहामयि चेदस्ति विश्वासः श्रीगोपीजनवल्लभे । तदा कृतार्था यूयं हि शोचनीयं न कर्हिचित् ।। मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ।। __ अर्थात्-यदि मुझ में तुमारा विश्वास रहेगा तो तुर कृतार्थ हो जाओगे । तुमारी शोचनीय दीन दशा कभी होगी। मुझमें विश्वास रक्खो ।