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__ श्रीमद्वल्लभाचार्य ब्रह्म का अविर्भाव होता है तमी 'नित्यः सर्वगतः स्थाणु।' इस वाक्य में कहा हुआ सर्वगतत्त्व जीव में आ जाता है । लोहे के गोले को तपाने से उसमें दाहकत्त्व आ जाता है । यह जला देने की शक्ति लोहे में नहीं है किन्तु आगन्तुक है। अग्मिकी ही है । इसी तरह जीव में भगवान् का अविर्भाव होने से उस में व्यापकत्व आ जाता है । यह व्यापकता जीव की नहीं ब्रह्म की है।
कितने ही दार्शनिक यह भी कहते हैं कि यदि जीव शरीर के बराबर न हो तो सारे शरीर में चैतन्य का बोध नहीं होता। परन्तु यह ठीक नहीं है क्यों कि यदि हम यह मानलें कि जीव देह के बराबर है तो शरीरकी वृद्धि और क्षीणता के साथ जीव की भी वृद्धि और क्षीणता माननी होगी । देह के कुछ भाग का नाश होने पर जीव का भी कुछ भाग नष्ट हो जायगा । और शरीर की अनित्यता के साथ जीव की भी अनित्यता माननी पडेगी। इसलिये मानना पड़ेगा कि जीव शरीर के बराबर नहीं है। __ कितने ही जो यह कहते हैं कि जीव व्यापक है यह बात मी सिद्ध नहीं होती । मानलो दुलारेलाल, शिवप्रसाद गुलजारीलाल, द्वारकाप्रसाद ये सब जीव हैं। यदि जीव व्यापक हो तो एक दूसरे को अपने आप यह ज्ञान हो जायगा कि अमुक मनुष्य क्या कर रहा है या क्या