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और उनके सिद्धान्त । १९३ ६-"ब्रह्म सर्व विरुद्ध धर्मों का आभय है।" वेदो में लिखा है'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः'। ___ अर्थात्-'ब्रह्म के (प्राकृत) पैर नहीं हैं तथापि वह दौड सकता है, उसके हाथ नहीं हैं तथापि वह ग्रहण कर सकता है। उसके आंख नहीं है तथापि वह देखता है, कान नहीं हैं तथापि वह सुन सकता है।' यह है ब्रह्म के विरुद्ध धर्मों के आश्रय होने का प्रमाण । __ वह निर्धर्मक है तथापि वह सधर्मक भी है। निराकार भी हो कर वह साकार सन्तत सिद्ध है। निर्विशेष हो कर भी वह सविशेष है । निर्गुण है तथापि वह सर्व गुण है । अणु से अणु भी वही होता है और महान से महान भी वही हो जाता है।
७-'ब्रह्म निर्दुष्ट है।' भाष्य-जीव स्वभाव से दुष्ट होते हैं । किन्तु स्वरुप से वे निर्दुष्ट होते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण के सिवाय सच पूछा जायतो निर्दुष्ट पदार्थ कोई है ही नहीं । श्रीमहाप्रभुजी ने भी कहा है
कृष्णात्परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् । ८-"ब्रह्म सर्व लद्गुण संयुक्त है" । वह स्वतन्त्र और अप्राकृत शरीरवत् ज्ञानसे दृश्य है । उसमें प्राकृत शरीर के कोई गुण नहीं हैं।
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