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श्रीमद्वल्लभाचार्य
श्रीवल्लभाचार्य का ब्रह्मवाद।। श्रीशंकराचार्य का
१-जगत् सत्य है और ब्रह्म- मायावाद ।। स्वरूप है । जीव के द्वारा अहंता १-यह दृश्यमान् ममता कल्पित संसार मिथ्या है। और श्रुत जगत् सव यह जगत् विशेषतःदो प्रकारका है। मिथ्या है । वेद, स्वर्ग,
२-स्वप्न,मूर्ति आदिभगवद्वि- वैदिक कर्म और भक्ति ग्रहों में लौकिकता दीखना,गन्धवें सब मायिक हैं-मिथ्या नगर, शुक्तिरजत आदि असत्य प्रपंच हैं । सत्य प्रपंच मे नश्वरता |
हैं । अतः व्यवहार में आदि दीखना भी मायिक है। किंवा अज्ञानावस्था में
३-पंचमहाभूत और उनसे बने ही करने लायक हैं। हुए पदार्थ, वेद,स्वर्ग, मोक्ष आदि २-जीव ब्रह्म से प्रपंच सत्य हैं । और ब्रह्मात्मक हैं। कोई अलग पदार्थ नहीं
४-जीव ब्रह्मका ही अंश है। तै किन्तु अविद्या किंवा
५-जगत् का कर्ता अक्षर माया युक्त ब्रह्म को ही ब्रह्म है । वह अक्षर ब्रह्म माया जीव कहते हैं । इसी से अथवा अविद्या से रहित है और | वह ब्रह्म का अंश जैसा है। उसमें विरुद्ध अविरुद्ध सर्वशक्ति ३-'तत्त्वमसि' इत्याऔर धर्म रहते हैं अधिकारानुसार उस ब्रह्म की अनेक स्फुर्ति होती हैं। दि दस महावाक्यों का
६-श्रीकृष्ण ही परात्पर निर्दोष अर्थ जानने मात्र से आनन्दमायाकार और अप्राकृत | 'अहं ब्रह्मास्मि' मैं ब्रह्म सर्व गुण युक्त वस्तु है। हूं यह ब्रह्मज्ञान होने