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________________ १६४ श्रीमद्वल्लभाचार्य सूर्य अपने किरणों से मनुष्यमात्र को सतेज करता है यह भी उसका एक यज्ञ है । किन्तु ये सब लघुयज्ञ हैं और आत्मसमर्पण एक महान् यज्ञ है । क्यों कि इसमें अहन्ताममतादिक सर्व सामग्रीओंका यज्ञ करने में आता है । यह एक ऐसा महायज्ञ है जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार सबों को होम कर दिया जाता है और भगवान् से शुद्धप्रेम का दान लिया जाता है। भगवान् स्वयं, जो कुछ भी भक्तिपूर्वक दिया जाय, उसे ग्रहण करते हैं । किन्तु इस आत्मसमर्पण यज्ञ में तो भगवान् को तन, मन, धन सब प्रेम पूर्वक समर्पित किया जाता है । इसलिये यह यज्ञ सर्वयज्ञो में श्रेष्ठ है। ब्रह्मसंबंध सिद्धान्तानुसार असमर्पित वस्तुओं का त्याग करना चाहिये । और अर्धभुक्त वस्तु स्वामी के कभी भी समर्पित करनी नहीं चाहिये । सब कर्म ब्रह्म के समर्पित करके किये जाते हैं । इस लिये जीव को दोष का भागी नहीं होना पडता । इन बातो का ध्यान रख दीक्षित को सर्व कार्य सम्पन्न करने चाहिये । ब्रह्मसंबंध के अनन्तर ही जीव सेवा का अधिकारी हो सकता है । । ब्रह्मसंबंध करने से जीव के जो पांच दोष हैं उनकी निवृत्ति हो जाती है । जहां तक ब्रह्मसंबंध दीक्षा ग्रहण नहीं की जाती वहां तक ही ये पांच दोष जीव को सेवामे
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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