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१३८ श्रीमद्वल्लभाचार्य जो एक मात्र भगवत्प्रेम में पागल बन गया है, जिसे भगवप्रेम का व्यसन ला गया है, वह तो अत्यन्त ही दुर्लभ है । ऐसे भक्त की अवस्था का वर्णन हमारी वाणी अथवा लेखिनी करने में सर्वथा असमर्थ है । इसी लिये श्रीमद्वल्लभाचार्य ने कहा है'भक्तिः स्वतन्त्रा शुद्धा च दुर्लभेति न सोच्यते ।'
ऐसी दुर्लभ भक्ति का श्रीहरिरायजी ने इस प्रकार वर्णन किया है
लोकवेद्भयाभावो यत्र भावातिरेकतः। सर्वबाधकतास्फूर्तिः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥
अर्थात्-जहां भगवद्भावना अत्यन्त प्रबल हो जाने से पति पुत्रादि लोक भय और नरकादि परलोक भय नहीं रहता तथा जब यह बोध हो उठे कि 'प्रभु प्रेम काल कर्म स्वभावादि सब का बाधक है' यही शुद्ध पुष्टि भाक्ति है । __ भगवान् के वेणुरव से जब अपने २ गृहका परित्याग कर व्रजस्त्री भगवान् के समीप वन मे पहुंची तब भगवान् ने कहा था कि 'हे व्रजसुन्दरी गण, आपका अपने गृहकार्य को परित्याग कर रात्रि के समय एकान्त में परपुरुष के पास आना योग्य नहीं है ।' आप लोग वापस जाय । क्यो कि यह आपका कार्य सर्वथा अनुचित, अस्वये, अयशस्कर और लोक में निन्दनीय हुआ है । भगवान् के एसे वचन