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श्रमिदल्लभाचार्य कर रहा हूं कि मेरी आत्मा सन्तुष्ट नहीं हुई है । दिल गवाही दे रहा है कि अभी मुझे कोई सर्व श्रेष्ठ कार्य और भी करना बाकी है। भगवन , आप पर मेरी वडी श्रद्धा है। आपको में एक भगवान का परमानुग्रह सम्पन्न भक्त समझता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरी हृदय ग्रन्थी को आप ही खोलेंगे। क्या मुझे आप इस रहस्य को समझावेंगे?' देवर्षि विप्रर्षि के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए प्रीति पूर्वक बोले-"ब्रह्मन् , मैं आपके असन्तोष के कारण को जानता हूं सच कहूं तो कह सकता हूं कि मैं आप के पास भी उसी के लिये आया भी हूं। मेरी समझ में तो यह है कि आप ने इतना परिश्रम किया वह भी व्यर्थ गया । मनुष्य तो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत्ति करने वाला है आप ने इसी को और उत्तेजन देकर उसे और भी प्रवृति शील बना दिया। अब, जिस प्रकार तूफान के थपेडों से नाव इधर से उधर और उधर से इधर भटका करती है उसी प्रकार जीव की भी दशा होगी । उसे विश्रामस्थान तो कहीं मिलेगा ही नहीं ! मैं क्या कहूं-आप स्वयं बुद्धिमान् हैं मेरा तो पुनः पुनः कहना यही है कि आप ने अभी तक भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र, धर्म, और उन की भक्ति अच्छी प्रकार से वर्णित नहीं किये हैं । और इसी से आप की आत्मा असम्पन्न है। यह आप ठीक समझिये कि आप विविध कोमलकान्त पदा