________________
९४
श्रीमद्वन्चभाचार्य श्रीमदणुभाष्य में आप आज्ञा करते हैं'अनवगायमाहात्म्ये श्रुतिरेव शरणम्' अर्थात् अचिन्त्य माहात्म्य युक्त ब्रह्मके विषय में जहां कुछ भी मालुम पडता न हो वहां वेदों को ही प्रामाण्य मानना । उसकी उक्ति को ही यथार्थ मानना चाहिये । अन्य ग्रन्थोंकी शरण लेना भ्रमावह है।
वेदों में अपनी परमश्रद्धा व्यक्त करते हुए आपने कहा है
'अल्पकल्पनायामपि श्रुतिविरोधः सिद्धः।' 'श्रुत्यविरोधार्थमेव हि प्रवृत्तेः ' वेदों के अक्षरों में जरा भी कल्पना करने से विरोध आजाता है। शास्त्रोंकी तो प्रवृत्ति श्रुति के अविरोध सिद्ध करने की ही है।। __ हम यहां पर इस बातके प्रमाणभूत कुछ वाक्य उद्धृत करते हैं जिनके पढ लेने पर विदित हो जायगा कि श्रीमदल्लभाचार्यजी वेदों पर कितना अटल विश्वास और कितना दृढ प्रामाण्य रखते थे। इन्हीं वाक्यों से वेदों का पुष्टिमार्गमें कितना उत्तम स्थान है यह भी भलीभांति प्रमाणित हो जायगा।
वेदों को अप्रतारक और सर्वज्ञ मानते हुए आप सिद्ध करते हैं___ "न हि वेवादिनामणुमात्रमप्यन्यथाकल्पनम् चितम् । न च भ्रमात्कल्पनं वेदेनोच्यते । अप्रतारक