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और उनके सिद्धान्त ।
है-"कृतिसाध्यं साधनं ज्ञानभक्तिरूपं शास्त्रेण बोध्यते ताभ्यां विहिताभ्यां मुक्तिर्मर्यादा तद्रहितानपि स्वरूपवलेन स्वप्रापणं पुष्टिरित्युच्यते ।" (३-३-२९) कहने का तात्पर्य यह हैं कि वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, तप इत्यादि करने से मोक्ष होता है ऐसा शास्त्रों में सुनते चले आये हैं । इस मोक्ष में वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, तप इत्यादि उपयोग में आते हैं । अर्थात् मोक्ष के लिये यह प्रधान साधन माने गये हैं । इस लिये शास्त्र में कहे हुए इन साधनों द्वारा मुक्ति की प्राप्ति करनी उसे 'मर्यादा' कहते हैं । शास्त्रों में जो वातें लिखी हैं और जो साधन बताये हैं केवल उन्हीं के सहारे, आदि से अन्त तक शास्त्रकी मर्यादा में ही रहकर जो मोक्ष के लिये साधन किया जाय उसे 'मर्यादा' कहते हैं । किन्तु उपर्युक्त वेदाध्ययन प्रभृति जहां साधन नहीं गिने गये हों, अर्थात् जो उपर्युक्त साधनों से कहीं अधिक श्रेष्ठ है ऐसे प्रभु के स्वरूप वल से ही जो प्रभु की प्राप्ति होनी उसे 'पुष्टि' कहते हैं । इस व्याख्या को वेद स्वयं पुष्ट कर रहा है । मुण्डकोपनिषद् में कहा है
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यै
षात्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥