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और उनके सिद्धान्त ।
गया हो उसे ही 'पुष्टिमार्ग' कहते हैं। जहां जगत् के कर्ताको परब्रह्म माना हो और इसे माया और अविद्या से रहित माना हो और उसमें विरुद्ध अविरुद्ध सर्व शक्ति और धर्म का समावेश माना गया हो और अधिकारानुसार उस ब्रह्म की अनेक स्फूर्तियां जहां मानी गयी हों वह 'पुष्टिमार्ग' है। जहां श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म परमात्मा माना गया हो,जहां उन्हें ही सर्वसामर्थ्यवान् कर्तुमकर्तुमन्ययाकर्तुं ईश्वर समझा गया हो, जहां भगवान् में देह इन्द्रिय और अन्तःकरण की कल्पना मिथ्या मानी गई हो वही 'पुष्टिमार्ग' है। जहां श्रीकृष्णका साक्षात्कार होना,उनकी सायुज्यमुक्ति मिलनी, उनकी सेवा प्राप्ति और सेवा का अधिकार यही परम पुरुषार्थ माना गया हो वही पुष्टिमार्ग' है। जहां मोक्ष किंवा आनन्दप्राप्ति का एक मात्र साधन भगवान् की भक्ति और उनमें एकान्त अनुरक्ति मानी गई हो उसे 'पुष्टिमार्ग' कहते हैं। जहां भगवान् की भक्ति करना ही जीव का निष्काम धर्म समझा गया हो, भक्ति के प्रत्युपकार में जहां हृदय में कुछ मी अभिलाशा नहीं रक्खी जाती और जहां केवल भाव मात्र का ही पोषण हुआ करता है उसे 'पुष्टिमार्ग' कहते हैं। कितना कहें ? यदि सूक्ष्म भेदों पर दृष्टि न दें तो यह सब पुष्टिमार्ग की प्रसिद्धि के हेतु हैं । संक्षेप में यदि सब कुछ कह दें तो कह सकते हैं जहां धर्म अर्थ काम और