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और उनके सिद्धान्त ।
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गृहस्थित मनुष्य सेवा आदि में वाधक होते हैं यह सोचकर भी सन्यास लेना ठीक नही क्योंकि गृह छोडने के अनन्तर भी कलिदूषित मनुष्यों से काम पडता ही रहेगा ।
कालका प्रभाव ऐसा दुस्तर है कि वह बलपूर्वक मन को विषयों में खेंच ले जाता है । इस लियें साधन रूपसे अथवा साधन सिद्धि के लिये हमारे मार्ग में सन्यास लेना निषिद्ध है ।
फलात्मक सन्यास लेनेका भक्तिमार्ग में विधान है । भक्तिमार्ग में प्रभु का स्नेह परिपूर्ण प्राप्त होना फल है । वह स्नेह दो प्रकार का है। संयोग और विरह । प्रभु पर स्नेह होने के अनन्तर विरहका अनुभव लेने के लिये यदि सन्यास लिया जाय तो वह ठीक है । ऐसे सन्यास लेने में वेश परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है । दण्डकमण्डलु भी उतने आवश्यक नहीं है तथापि आत्मीयोंकी चित्तवृत्ति को फेरने के लिये यदि ले लिये जांय तो हानि नहीं है ।
सेवाफल - इस ग्रन्थ में सेवा के फल का निरूपण है सेवा के उत्तम फल स्वरूप प्रभु के साथ आनन्दमय काम अशनादि प्राप्त होते हैं । मध्यम फल स्वरूप सायुज्य प्राप्ति होती है कनिष्ट फलस्वरूप प्रभु की सेवाका अधिकार फल प्राप्त होता है । सेवोपयोगी अक्षरात्मक देह को अधिकार कहते हैं ।
लौकिक या वैदिक बाधा वार २ सेवा में विघ्न डालती हों तो समझलेना चाहिये कि प्रभु की हमें फल देने की