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________________ ५६ श्रीमद्वल्लभाचार्य दोषों की सर्वथा निवृत्ति क्रमिक अभ्यास से होती है तथापि जिस दिनसे गुरुके द्वारा इन दोषोंकी निवृत्ति का उपाय प्रारम्भ किया उस प्रारम्भ का नाम ही 'ब्रह्मस. म्बन्ध है। ब्रह्मसम्बन्ध का जो मत्र है उसमें यह बात समझाई गई है कि सपरिकर जीव ब्रह्म का है-प्रभु श्रीकृष्ण का है। श्रीकृष्ण जीव के उपजीव्य, स्वामी, अंशी हैं । इस लिये जीव के लिये एक मात्र श्रीकृष्ण ही सेव्य हैं-वे ही जीव के सर्वस्व हैं । जीव श्रीकृष्ण का उपजीवक दास और अंश है । इस लिये वह श्रीकृष्ण का सेवक है। जगत् में श्रीकृष्ण ने जीव को इसी लिये जन्म दिया है कि वह उनकी सेवा करता रहै। प्रभु में और जीव में जो यह स्वामी और सेवक का सम्बन्ध है उसे जीव संसार में आकर, अहंता ममता दोष से भ्रमित होकर, मूलजाता है । इस ब्रह्म के और जीव के संबंधको आचार्य के द्वारा स्मरण कराने वाले मन्त्र को ब्रह्मसम्बन्ध मन्त्र कहते हैं। __ प्रति दिन और प्रतिपल इस सम्बन्ध का प्रत्येक वैष्णव को स्मरण करते रहना चाहिये । ये स्मरण जब दृढ हो जाता है तब पांच दोष सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। पांच दोष ये हैं-सहज, देशकालोत्थ, लोकवेदनिरूपित, संयोगज और स्पर्शज ।
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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